सुनो तुम
न जाने कहाँ हो!
तुम्हें देख रही है मेरी आँखें
तुम्हें ताक रहीं है मेरी राहें
तुम्हें थाम रहीं है मेरी बाँहें
लेकिन तुम नहीं हो
बहुत दूर दूर तक
बहुत दूर ...के पार
हाँ! शायद तुम वहाँ हो
सुनो तुम...
जाने, तुम हो भी या नहीं
कभी तो लगता है यही
पर तुम्हें होना चाहिए
है न
पर मै नहीं हूँ
तुम्हारे होने तक
मेरी नज़रें
नही जातीं वहाँ तक
कि तुम जहाँ हो
सुनो तुम,
न जाने कहाँ हो
कहाँ हो
कहाँ हो ....!
- गीतिका 'वेदिका'
(मौलिक/ अप्रकाशित)
Comment
इसी मंच पर मैंने इधर की कुछ अतुकान्त रचनाओं को समझने का प्रयास किया है आप उन पर मेरे निवेदन को देख जायें, आदरणीया.
अतुकान्तता सहज प्रतीत होती अवश्य है, लेकिन उसकी वैचारिकता अध्ययन मांगती है. अन्यथा रचनाकर्म या तो उथला होजाता है अथवा असहज. यह कुछ ऐसा ही है .. क्षुरस्यधारा निशिता दुरत्यया दुर्गम पथः इति.. . छुरे की धार पर चलने के समान यह अत्यंत दुर्गम राह है.
सादर
आदरणीय सौरभ जी!
आपकी प्रतिक्रिया सदैव ही महत्वपूर्ण है
तथापि एक सत्य उद्घाटित करुँगी कि अतुकांत रचना को लिख कर मै और साथी रचनाकार आपकी समीक्षात्मक दृष्टी का इंतजार किया करते है| आप का अनुमोदन मिल जाना मानो रचना पास हो गयी|
आभार आदरणीय !!
परम की पुकार का प्रवाह सार्थक है. मनन ने रचनाकर्म को विशेष आयाम दिये हैं. आपसे सार्थकता की आशा सहज हो गयी है.
बहुत-बहुत बधाई..
आभार आदरणीय अमन जी!
सादर !!
कविता मे अंतर्निहित दशा .....माफ़ कर दे !नीरज जी के साथ बह गया मे ,,,, खाली लिखने के लिए तो कोई कविता नही लिखी जाती , कही न कही मनोदशा भी साथ देती ही है बाकि आप जानती ही है भाव कहा से उपजा .......
आदरणीय अमन जी!
कवित्री की मनोदशा या कविता में अंतर्निहित दशा ???
कवित्री की मनोदशा समझने बाले श्रोता भी बिरले ही होते है नीरज जी आप सच्चे पाठक हो |
विरह के क्षणों में ऐसा ही होता है आंखें ढूंढती हैं, राहें तकती हैं, बाहें थामने को आतुर हैं लेकिन वह जिसकी चाहना है उसका सानिध्य नहीं होता। ऐसे क्षणों में प्रशंसा भी आलोचना लगती है, मन व्याकुल जो है। तभी तो अमन जी की प्रशंसा ने भी मन में शंका पैदा कर दी।
बहुत अच्छी भावाभिक्ति। आपको हार्दिक बधाई।
ह्रदय की पुकार .. वेदना में पग कर ...उभरी है ..निखरी है रचना में ...सौ सौ बार बधाई सशक्त रचनाकार को इस स्तुत्य प्रस्स्तुती हेतु !
हम सब सीखते ही तो है हर स्थान पर हर मोड़ पर .
आपका आभार
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