बस फिर क्या था!! टीचर उस पर बरस पड़ी और 'फाइन' भरने का फरमान सुना दिया। लड़की की आँखें छलक आयीं। उसकी भावनाएं आहत तो हुईं ही पर उससे भी बड़ी बात ये थी कि जुर्माना कैसे चुकाया जाये?! घर में इतने पैसे कहाँ थे! अम्मा को बताने की हिम्मत न हुई. वे सुन लेतीं तो बेचारगी में झल्लातीं। उसने चुपके से यह बात, अपने बड़े भाई को बताई। दोनों ने मिलकर अपनी अपनी गुल्लकें तोड़ दीं. कई सारे, चिल्लर मिलाकर, किसी भांति जुर्माने की रकम जमा की.
जब उसने शिक्षिका के हाथ पर वो रकम रखी तो चिल्लरों का ढेर देखकर, बिना कहे, वे सब कुछ समझ गयीं. नन्ही सी लडकी की व्यथा, हृदय को विगलित कर गयी. उसके लिए मन में, ममत्व फूट पड़ा. सारे दुराग्रह, ममत्व के उस सोते में बह निकले. उस दिन के बाद से, वह छात्रा, उन्हें बेटी की तरह अज़ीज़ हो गयी.
२- कॉटन का लंहगा
उस छोटी लडकी को, संगीत का शौक था. माँ ने कहा, "गाना सीखने के लिए पैसे दे दूंगी लेकिन डांस के लिए नहीं...दो दो चीजों के लिए, फीस नहीं भर सकती" गाने के अलावा, नृत्य की कक्षा भी, वहां चलती रहती. लडकी अक्सर, हसरत भरी निगाहों से, डांस की प्रैक्टिस को देखती. ध्यान से उन सभी 'स्टेप्स' को मन में बिठाती और घर आकर चुपके चुपके, उनका अभ्यास करती. एक बार नृत्यशाला की तरफ से, कोई आयोजन रखा गया. सामूहिक नृत्य भी, उस आयोजन का एक हिस्सा था. जोरों से अभ्यास चलने लगा. ऐन वक़्त पर, उनमें से एक लडकी, बीमार पड़ गयी. गुरूजी को समझ न आया कि अब वे क्या करें. सहसा उन्हें कुछ सूझा और उन्होंने इशारे से उस नन्हीं लडकी को बुला लिया. उसे उन्होंने कई बार, नृत्य देखते हुए पाया था.
उन्होंने उससे, नृत्य के स्टेप्स को, कॉपी करने का आग्रह किया. आश्चर्य! लडकी ने उनकी अपनी छात्राओं से भी, कहीं बेहतर, नाचकर दिखाया. आयोजन में उसका भाग लेना, सुनिश्चित हो गया. प्रोग्राम वाले दिन, जब सब लडकियों ने; अपने अपने लंहगे निकालकर , पहनना शुरू किया- वह कुंठा से भर उठी . कहाँ उन सबके, चमकते हुए, साटन के लंहगे और कहाँ उसका, साधारण सा सूती लंहगा! हालांकि अम्मा ने, अपनी सामर्थ्य से बढ़कर, पैसे खर्च किये थे- कपडे और गोटे को खरीदने में. अपने हाथों से उसे सिला था, गोटे की किनारी से, सजाया था. सभी नृत्यांगनाएं सज- संवरकर तैयार हो गयीं पर गुरूजी को वह लडकी नहीं दिखी. वे उसे ढूंढते हुए, ड्रेसिंग रूम में पहुचे. वहां वह हताश सी, एक कोने में बैठी थी. उन्होंने पूछा- "तुम तैयार नहीं हुईं? तुम्हारी ड्रेस कहाँ है???"
छुटकी ने सकुचाते हुए, लंहगा उनकी तरफ बढा दिया. लंहगा देखते ही, वे द्रवित हो उठे; उसे ढांढस बंधाते हुए बोले, " अरे अच्छी तो है...शुक्र है तुम ड्रेस लायी हो... मैं तो डर गया था कि शायद, तुम्हारे पास ड्रेस है ही नहीं! चलो फटाफट रेडी हो जाओ" कहते हुए उन्होने सायास, एक छद्म मुस्कराहट ओढ ली. बच्ची की असहायता ने, उन्हें भीतर तक हिला दिया था और उस दिन के बाद से वे उसे, नृत्य की निःशुल्क शिक्षा देने लगे.
ये दोनों घटनाएं, मेरी माँ के बचपन से जुडी हैं. अब आप इन्हें, लघुकथा कहें या संस्मरण- यह आप पर छोडती हूँ.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
रचना के मर्म को गृहण कर, सकारात्मक प्रतिक्रिया देने हेतु, कोटिशः धन्यवाद बृजेश नीरज जी.
बहुत ही सुंदर! मन द्रवित करने वाला कथ्य! आपको बहुत बहुत बधाई!
सादर!
आपने सही कहा, भ्रमर जी; यदि आज के गुरुओं में भी, ऐसी संवेदना पनप सके तो समाज का चेहरा ही बदल जाये. किन्तु अफ़सोस की बात है कि आज समाज के, इन रहनुमाओं के बारे में, कैसी- कैसी बातें सुनने को मिलती हैं - विशेष तौर पर आध्यात्मिक गुरुओं के बारे में. समर्थन एवं सराहना हेतु, कोटिशः आभार.
अनेकानेक धन्यवाद, जितेन्द्र 'गीत' जी.
आदरणीया विनीता जी मन के सितार के तार को झकझोर गया ये आप का प्यारा लेख दिया दिखा गया काश जैसे इस बाला के काटन के लहंगे को देख गुरु जी मुफ्त शिक्षा देने लगे ऐसे और लोग जज्बातों को भांप कर बदल सकें तो आनंद और आये ...सटीक और खूबसूरत भाव
भ्रमर ५
बहुत ही मर्मस्पर्शी घटना ,हार्दिक बधाई आदरणीया विनीता जी
सराहना एवं समर्थन के लिए, कोटिशः आभार, अभिनव अरुण जी.
आपका बहुत बहुत धन्यवाद, आदित्य जी.
कथाओं के मर्म को गृहण करने तथा प्रशंसा के लिए, हार्दिक धन्यवाद अन्नपूर्णा जी.
आपका हार्दिक आभार, गीतिका वेदिका जी, रचना को समय देने व सराहने के लिए.
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