राम रम में घोलकर वो
लिख रहे चौपाईयां
कोंपले, कत्थई, गुलाबी
औ हरी पुरवाईयाँ
पा भभूति हो चली हैं
पेट वाली दाईयाँ
खोल मुँह बैठा कमंडल
सुरसरि की आस में
ध्यान भी, करता यजन भी
डामरी उल्लास में
पर सरफिरा हाकिम समझता
खिज्र की रानाईयाँ
चूडि़याँ टुन से टुनककर
छन से पड़ी जिस होम में
बड़ा असर रखता गोसाईं
नीरो के उस रोम में
नरमेध के इस अश्व को
यह रेशमी विश्वास है
नर हैं सभी पंगु मगर
मादा सहज, गौ ग्रास है
फर्क है पड़ता किसे अब
कितनी कटी कलाईयाँ
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय वंदना तिवारी जी, केवल जी,जितेन्द्र जी, वंदना जी एवं गिरिराज जी, आप सबका आभारी हूं, सादर
अति सुन्दर !! राजेश भाई , बहुत बधाई !!
बहुत बढ़िया रचना ....बहुत बहुत बधाई आदरणीय राजेश जी
अति सुंदर चित्रण, बहुत बहुत बधाई आदरणीय राजेश जी
आ0 राजेश भाई जी, वाह! नए तेवर के साथ सुन्दर रचना। हृदयतल से हार्दिक बधाई। सादर,
क्या बात है भाई
रचाई
खूबसूरत गीतिका -
शामिल हकीकत
रम रमण की
दुष्ट दुर्जन ही टिका-
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