!!! मंदिरों की सीढि़यां !!!
दर्द हृदय मे समेटे
नित उलझती,
आह! भरतीं
मंदिरों की सीढि़यां।
कर्म पग-पग बढ़ रहे जब,
धर्म गिरते ढाल से
आज मन
निश-दिन यहां
तर्क से
अकुला रहा।
घूरते हैं चांद.सूरज,
सांझ भी
दुत्कारती।
अश्रु झरने बन निकलते,
खीझ जंगल दूर तक।
शांत नभ सा
मन व्यथित है,
वायु पल-पल छेड़ती।
भूमि निश्छल
और सत सी
भार समरस ढो रही।
ठग! अडिग
अविचल ठगा सा,
राह प्रतिदिन देखता।
कब? कहां? कैसे मिलेंगे?
आत्मा के देवता!
बस! शिशिर में
कांपती रूह,
धर्म तन में हाड़ सी।
रात के सपने भयंकर,
भव में बेड़ा डूबता।
फिर मलिन बस्ती में होता,
दूध-जल से
अर्चना।
आंख खुलती
शोर होता,
पैर से कुचली गयी।
सोच! मेरी देह कैसी--?
संगमरमर--- हाय!
तिल-तिल मिट रही।
ऐ! मेरे गुरूवर बता दें,
आत्मा ये पूछती,
मुझसे बनते घर-शिवालय
कोटि देवी देवता।
आप भी तन-मन रमे हैं,
पैर निश-दिन
चूमती।
है मेरा ये भाग्योदय!
या कहानी क्रूर सी।
के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 प्राची मैम जी, आपके अपार स्नेह, उत्साहवर्धन और यथोचित सुझाव हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,
ठग! अडिग.........ठग.......मन के लिए उपयोग किया गया है।
अविचल ठगा सा,............यहाँ ठगी सी होना चाहिये .......ठग पुल्लिंग है।
राह प्रतिदिन देखता।........और यहाँ भी देखती .......ठग पुल्लिंग है।
फिर मलिन बस्ती में होता,........यहाँ भी होती ही उपयुक्त लग रहा है ....वाक्य पटुता के लिहाज से।
दूध.जल से
अर्चना।
....आपका सुन्दर व समुचित मार्गदर्शन शिरोधार्य है। मैं अवश्य ही इस पर कार्य करूंगा। एक बार आपका पुनः हृदयतल से बहुत-बहुत आभार। सादर,
आ0 भण्डारी भाई जी, आपके अपार स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,
आ0 विवेक भाई जी, आपने भावो के अन्तरद्वन्द को समझा, वास्तव में हमारे संस्कार निष्क्रीय से हो गये हैं। जिसके कारण हम किसी के दर्द और उसके सम्मान पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते हैं। फलतः हमें क्षति उठानी ही पड़ती है। आपके अपार स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,
सुंदर भाव से सुसज्जित रचना पर हार्दिक बधाई आदरणीय केवल जी
अत्यंत सुंदर भाव प्रणवता के कविता का संयोजन हुआ है, आदरणीय केवल भाई जी आपको बहुत बधाई ।
मंदिर की सीढ़ियाँ...
उनका मानवीकरण और भाव्प्रस्तुतिकरण बहुत ही खूबसूरती और संवेदनशीलता के साथ हुआ है...इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई
ठग! अडिग
अविचल ठगा सा,.........................यहाँ ठगी सी होना चाहिये
राह प्रतिदिन देखता।.......................और यहाँ भी देखती
फिर मलिन बस्ती में होता,...............यहाँ भी होती ही उपयुक्त लग रहा है
दूध-जल से
अर्चना।
अभिव्यक्ति का भाव प्रवाह विन्यास सब संतुलित हैं किन्तु अंतिम बंद कुछ और वक़्त मांगता है... कुछ और सशक्त भाव की अपेक्षा रखता है (भाव, कथ्य, विन्यास ) हर दृष्टि से.
फिर भी, इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
केवल भाई , अति सुन्दर रचना !! कवि की सोच कहां तक जा सकती है ? वाह !
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