रुसवाईयां ही रुसवाईयां
दूर तलक गम की
कोई ख़ुशी नही है अब
चैन कहाँ मिले...
परछाईयां ही परछाईयां
हर वक़्त अतीत की
कोई भोर नही है अब
रोशनी कहाँ मिले...
अंगड़ाईयां ही अंगड़ाईयां
रोज एक थकन की
कोई आराम नही है अब
कहाँ शाम ढले...
तन्हाईयां ही तन्हाईयां
इस अकेलेपन की
कोई साथ नही है अब
जीना है अकेले...
न ख़ुशी न सुकून
न आराम
न साथ किसी का
फिर भी जिए जा रहा हूँ....
जितेन्द्र ' गीत'
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
इन अंगड़ाइयों, तन्हाइयों , परछाइयों का जबाब नहीं ..पढने में बेहद रोचक ..बिलकुल निर्बाध गति से बहती नदी की तरह ..जितेंद्र् जी मेरे तरफ से ढेरों बधाई
सुन्दर भाव और सार्थक अभिव्यक्ति. बधाई.
आदरणीय जितेंद्र जी बहुत सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारें ।
विषमताओं के बाद भी ज़िंदगी चलती है... कहीं ना रुके,वह निरंतरता ही ज़िंदगी है
इस अभिव्यक्ति पर शुभकामनाएँ
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ……………… |
जीतेन्द्र भाई , अच्छी रचना , बधाई !!
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