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रुसवाईयां ही रुसवाईयां
दूर तलक गम की
कोई ख़ुशी नही है अब
चैन कहाँ मिले...

परछाईयां ही परछाईयां
हर वक़्त अतीत की
कोई  भोर नही है अब
रोशनी कहाँ मिले...

अंगड़ाईयां ही अंगड़ाईयां
रोज एक थकन की
कोई आराम नही है अब
कहाँ शाम ढले...

तन्हाईयां ही तन्हाईयां
इस अकेलेपन की
कोई साथ नही है अब
जीना है अकेले...


न ख़ुशी न सुकून
न आराम
न साथ किसी का
फिर भी जिए जा रहा हूँ....

जितेन्द्र ' गीत'
(मौलिक व् अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 31, 2013 at 8:26pm

इन अंगड़ाइयों, तन्हाइयों , परछाइयों का जबाब नहीं ..पढने में बेहद रोचक ..बिलकुल निर्बाध गति से बहती नदी की तरह ..जितेंद्र् जी मेरे तरफ से ढेरों बधाई 

Comment by Vinita Shukla on August 31, 2013 at 8:12pm

सुन्दर भाव और सार्थक अभिव्यक्ति. बधाई.

Comment by annapurna bajpai on August 31, 2013 at 3:08pm

आदरणीय जितेंद्र जी  बहुत सुंदर रचना हेतु बधाई स्वीकारें ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 31, 2013 at 3:08pm

विषमताओं के बाद भी ज़िंदगी चलती है... कहीं ना रुके,वह निरंतरता ही  ज़िंदगी है 

इस अभिव्यक्ति पर शुभकामनाएँ 

Comment by Shyam Narain Verma on August 31, 2013 at 1:06pm
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 31, 2013 at 12:28pm

जीतेन्द्र भाई , अच्छी रचना , बधाई !!

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