२ १ २ २ १ १ २ २ २ २
जिंदगी कैसी कज़ा चाहती है
मर के जीने की दुआ चाहती है
.
बीत गया जो तुझे साथ मुबारक
मेरी दुनिया तो नया चाहती है
.
वो अगर चाहे हमें क्षमा कर दे,
अब मगर वो भी सज़ा चाहती है
.
छीन ली उस ने हमारी दुनिया,
छीन अब न सके खुदा चाहती है
.
वो छुपा लेती है अँधेरा खुद में
जिन से लौ उन का पता चाहती है
.
जो थी मंजल हमें दिखाने निकली ,
राह में भटकी पता चाहती है
मौलिक -व्- अप्रकाशित
Comment
आदरनीय डाक्टर ललित जी,
मै आप जी की तरफ से बताई बहर अनुसार गजल कहने का प्रयास किया हे कृपा मेरा मार्गदर्शन कीजिएगा ,धन्यवाद
२ १ २ २ १ २ २ १ २ २ १ २
जिंदगी आज कैसी कजा चाहती
मर के जीने की वो क्यों दुआ चाहती
बीत जायेगा जो आयेगा दिन कहाँ
मेरी दुनिया मगर कुछ नया चाहती
वो अगर चाहती तो क्षमा कर देती
अब मगर वो भी मेरी सजा चाहती
छीन ली ऐसे ही मुझ से दुनिया मेरी
छीन अब ले मुझे ये खुदा चाहती
वो छुपा लेती हे ये अँधेरा अभी
जिन से लौ तो कभी का पता चाहती
जो थी मंजल हमें खुद दिखाने निकली
राह वो भटकी खुद का पता चाहती
जिंदगी आज कैसी कज़ा चाहती
मर के जीने की वो क्यों दुआ चाहती
मोहन बेगोवाल जी , इसे
२१ २ २१२ २१ २ २ १ २
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
बहरे मुतदारिक मुसम्मन सलीम पर लिखें . मज़ा आ जायेगा . सादर
मोहन साहब बहुत कठिन बहर चुन ली है और कई जगह निभाने में चूक हो गई है ... तक्तीअ करके देख लिया करें ..
तक्तीअ से सब कुछ स्पष्ट हो जाता है
वो छुपा लेती है अँधेरा खुद में
जिन से लौ उन का पता चाहती है......वाह! बहुत खूब, बेहतरीन शेर
सुंदर गजल पर बधाई स्वीकारे आदरणीय मोहन जी
आदरणीय मोहन सर जी ग़ज़ल एक बार आप पुनः जांच लें आपने किस बहर पर लिखी है २ १ २ २ १ १ २ २ २ २ में एक जगह १ रह गया है. प्रयास पर बधाई स्वीकारें.
जिंदगी कैसी कज़ा चाहती है-- अच्छी लगी , बधाई ।
मर के जीना ही तो ख्वाइश है ..बेहतरीन ..सादर बधाई
अच्छी गज़ल कही , मोहन भाई !! बधाई !!
उम्दा ग़ज़ल .बहुत बधाई !
वो छुपा लेती है अँधेरा खुद में
जिन से लौ उन का पता चाहती है
वाह सर बहुत बढ़िया
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