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परम्परा प्रतिकूल, बेटकी रविकर खटकी-

टकी टकटकी थी लगी, जन्म *बेटकी होय |

अटकी-भटकी साँस से, रह रह कर वह रोय |


रह रह कर वह रोय, निहारे अम्मा दादी |
मुखड़ा है निस्तेज, नारियां लगती माँदी |


परम्परा प्रतिकूल, बेटकी रविकर खटकी |
किस्मत से बच जाय, कंस तो निश्चय पटकी ||

.
*बेटी

मौलिक / अप्रकाशित

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 14, 2013 at 11:16am

आदरणीय रविकर जी, आपकी कुंडली बहुत कुछ कह गयी है, बहुत बहुत बधाई |

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 14, 2013 at 10:47am

सुन्दर कुंडलिया छंद रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री रविकर भाई -

समय बड़ा बलवान है, दुष्कर्मी अब सोच,

सहमत बिन कोई नहीं,मार सके अब चोंच |

मार सके अब चोंच, नजीर बनी अब फांसी

नारी को कमजोर, समझ न करावे हांसी |

छोडो अब व्यभिचार, रख सद्भाव बन निर्भय

पलभर में अनुकूल, प्रतिकूल होजाय समय | -लक्ष्मण

Comment by बृजेश नीरज on September 13, 2013 at 12:17pm

बेटी की स्थिति निश्चित ही समाज में चिन्ताजनक है। आपका यह कुंडली छंद उस स्थिति को उभारने में सफल रहा है। आपको हार्दिक बधाई!

Comment by Parveen Malik on September 12, 2013 at 9:52pm
बेटियों के जन्म पर कहीं कहीं आज भी ऐसी उदासीनता देखी जाती है जो निसन्देह दुखद है .... बेहतरीन व्याख्या संकुचित मानसिकता को दर्शाती ... सादर !
Comment by डॉ. अनुराग सैनी on September 12, 2013 at 4:57pm

एक बेहतरीन सन्देश , एक नियति , बहुत बहुत बधाई 

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