मुजरिम मैं नहीं पर मुफ़लिसी गोयाई छीन लेती है
दौलत आज भी इन्साफ की बीनाई छीन लेती है
हैं जौहर आज भी मुझ में वही तेवर भी हैं लेकिन
सियासत अब मेरे हाथों से रोशनाई छीन लेती है
नफरत थक गयी दामन मेरा मैला न कर पाई
मोहब्बत मेरे दामन से हर रुसवाई छीन लेती है
यही रहज़न कभी रहबर हुआ करता था बस्ती का
ग़रीबी रंग में आती है तो अच्छाई छीन लेती है
~सालिम शेख
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आदरणीय सौरभ जी,मेरा सौभाग्य है की आप को मेरा एक भी शेर पसंद आया, जी मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ की ओबीओ जैसे उत्तम मंच से कुछ हासिल कर सकूँ,ग़ज़ल के बारे में काफ़ी कुछ यहाँ जानने को मिला, और बहुत कुछ रोज़ सीख रहा हूँ,मैं बहुत अभारी हूँ इस मंच का और आप सभी गुरुजनों का,आदरणीय कृपा बने रखें
सादर
आखिरी द्विपदी तो बहुत कुछ कह गयी भाई.. दिल से बधाई कह रहा हूँ.
शुभचिंतकों के सुझावों पर आप गंभीरता से अमल कर रहे हैं यह संतोष की बात है.
आ0 vijayashree जी बहुत बहुत धन्यवाद
जी बेशक आदरणीय ललित कुमार जी मैं भी गज़ल ही की तरफ क़दम बढ़ाना चाहता हूँ बस आप गुरुजनों का मार्गदर्शन और सहयोग मिल जाए तो ये रास्ता भी आसान हो जायगा
सभी शेर खूबसूरत हैं। बधाई।
सादर,
विजय निकोर
नफरत थक गयी दामन मेरा मैला न कर पाई
मोहब्बत मेरे दामन से हर रुसवाई छीन लेती है
बहुत खूब सलीम शेख़ जी
आपकी आँखों में अब वो सजल होना चाहती है
आपकी आजाद कविता ग़ज़ल होना चाहती है
आ0 जितेन्द्र 'गीत' जी बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय Abhinav Arun जी सराहना एवं मार्गदर्शन के लिए तहे दिल से शुक्रिया
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