वज़न -२२१२ २२१२
ठगते रहे सब प्यार में!
बिकता रहा बाज़ार में !!
लेने चला मै रौशनी!
पागल सा अन्धे गार में !!
खुद ही बताता है जखम !
थी धार क्या औज़ार में !!
कैसे नहीं गिरती भला !
थी रेत ही दीवार में !!
कैसे करूँ तारीफ़ मै!
दम ही कहाँ अशआर में !!
****************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
सुझाव के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय सौरभ जी//स्नेह यूँ ही बनाये रखें ///सादर
ये हुई न बात. बहुत सही.
जखम होगा या ज़ख्म, ये देख लेना भाई.
बहुत बहुत आभार आदरणीय राज जी///सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय आशुतोष जी/////सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय अभिनव अरुण जी//आपके इस अमूल्य सुझाव के लिए पुनः बहुत बहुत आभार //स्नेह यूँ ही बनाये रखें ////सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय भाई जीतेन्द्र जी////सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय भाई वीनस जी//आपके प्रोत्साहन से बल मिलाता है //सादर
बहुत आभार आदरणीया सावित्री जी //सादर
कैसे नहीं गिरती भला !
थी रेत ही दीवार में !!
कैसे करूँ तारीफ़ मै!
दम ही कहाँ अशआर में !!
अच्छे अशआर कहे हैं.
सुंदर प्रयास हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें
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