बह्र -- रमल मुसद्दस महजूफ
२१२२, २१२२, २१२
मैं पपीहा प्यास में मरता रहा,
स्वाति मुझको जानकर छलता रहा,
सर्द गर्मी धूप हो या छाँव हो,
कारवां चलता चला चलता रहा,
श्राप ही ऐसा मिला था सूर्य को,
देवता होकर सदा जलता रहा,
धूल लेकर चल रहीं थी आंधियां,
आँख मैं मलता चला मलता रहा,
बात मन की मन ही मन में रह गई,
दर्द भीतर रोग बन पलता रहा,
जब प्रतीक्षा में पड़ा था मौत के,
वक़्त मुझको वो बड़ा खलता रहा...
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
श्राप ही ऐसा मिला था सूर्य को,
देवता होकर सदा जलता रहा,// क्या बात है आदर्णीय अरुन जी, खूब कहा। बधाई।
प्रिय अरुण
सुन्दर अशआर कहे हैं
पर इता देश पर गौर ज़रूर करें क्योंकि इसके अनुसार काफिया ही गलत हो रहा है..
शुभकामनाएँ
अरुण अनंत भाई ग़ज़ल पर देर से आ पा रहा हूँ ...
काफी टिप्पणियां आ चुकी हैं और रदीफ़ भी बदल गई मगर एक बड़े दोष की ओर शायद किसी का ध्यान नहीं गया
आपको पता ही होगा काफ़िया के मूल शब्द में बढ़ा हुआ अंश यदि एक है तो रदीफ़ का हिस्सा माना जाता है
मरता छलता में ता रदीफ़ का हिस्सा हो गया अब मर छल को तो काफ़िया नहीं माना जा सकता !!!
ग़ज़ल में बड़ी इता का ऐब है जिसके करण ग़ज़ल में काफ़िया नदारद है ...
और काफ़िया का न होना ग़ज़ल में कितना संगीन जुर्म है ये आपको पता ही है ....
पुनः गौर फरमाएँ
बहुत अच्छी रचना . हर लाइन अपना एक सन्देश दे रही है .
बात मन की मन ही मन में रह गई,
दर्द भीतर रोग बन पलता रहा,
वाह ! वाह ! इतनी सुन्दर रचना के लिए बधाई।
आप सभी का अनेक अनेक धन्यवाद आप सभी का कहना था कि चला को रहा करने से वाक्य विन्यास अच्छे लगेंगे तो वह बदलाव कर दिया है, इसी तरह के सहयोग की अपेक्षा सदैव रहेगी आप सभी से. एक बार पुनः आप सभी मित्रों का हृदयतल से हार्दिक आभार आशीष एवं स्नेह यूँ ही बनाये रखिये.
अरुन शर्मा 'अनन्त' भाई,
दौरे हाज़िर ग़ज़ल अच्छी लगी। बधाई।
अगर रदीफ़ को 'रहा' कर दिया जाये तो सारे वाक्य विन्यास ज्यादा अच्छे लगेंगे।ग़ज़ल में कहीं कोई कमी नहीं है
सादर शुभ शुभ
धूल लेकर चल रहीं थी आंधियां,
आँख मैं मलता चला मलता चला,
... सादगी और ताजगी लिए हुए है ये ग़ज़ल बधाई आ. अरुण जी !!
बहुत बढ़िया ,हार्दिक बधाई
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