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न रंज करना ठीक है, न तंज करना ठीक
जो दौर बीता उससे यूँ, न फिर गुज़रना ठीक.
कि आखिरी सच मौत, इससे क्यों हमें हो खौफ़
यूँ डर के इससे हर घड़ी, न रोज़ मरना ठीक .
हर्फे आखिरी है जो खुदा ने लिख भेजा किस्मत में,
बने जो आका फिरते, उनसे क्यों हुआ ये डरना ठीक.
कोशिश ही बस में तेरे, खुदा के हाथ अंजाम,
भला लगे तो अच्छा है, बुरा भी वरना ठीक.
लाजिम है वज़न बात में , जो लब से तेरे निकली,
किए अपने ही वादों से, न खुद मुकरना ठीक.
लड़ा के लोगों को, ये रोटियां सियासी सेंकें'
ज़हर ये बदअमनी का है, न यूँ बिखरना ठीक.
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
Dr.Prachi Singh जी , आपकी शुभेच्छा के लिए ह्रदय से आभार व्यक्त करती हूँ !
वीनस केसरी ji ... बिलकुल सही कह रहे हैं आप .... प्रयास ज़ारी है ... उम्मीद है अगली बार कुछ सुधार दिखाई दे आपको !
सुन्दर गज़ल प्रयास पर हार्दिक शुभकामनाएँ आ० शालिनी जी
आदरणीया ग़ज़ल पर सुन्दर प्रयास हुआ है .. ग़ज़ल पर आदरणीयजन एक सकारात्मक चर्चा कर चुके हैं जिसका मुखर अनुमोदन करता हूँ
बिलकुल सही कहा आपने Dr Ashutosh Mishra जी ... जब गलतियाँ पता लगाती हैं तभी हम कुछ नया सीखते हैं ... बहरहाल .. प्रयास जारी है .. हौंसला अफजाई के लिए आभार !
आदरणीय vandana जी .. प्रसंशा के लिए आपका हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ|
साभार
अंत में लघु को छुट की तरह मन जाता है ....आपकी तरह मैं भी अपनी पिछली ग़ज़ल में सीखा पाया ..सुंदर भावों वाले इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
बहुत बहुत धन्यवाद जितेन्द्र 'गीत' जी !
कि आखिरी सच मौत, इससे क्यों हमें हो खौफ़
यूँ डर के इससे हर घड़ी, न रोज़ मरना ठीक
.
कोशिश ही बस में तेरे, खुदा के हाथ अंजाम,
भला लगे तो अच्छा है, बुरा भी वरना ठीक.
यह शेर बहुत पसंद हुए,बहुत बढ़िया गजल, बहुत बहुत बधाई आदरणीया शालिनी जी
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