उमा दादी ने जब बड़े प्यार से सभी कन्याओं को चरण धो धो कर जमीन पर बिछे आसन पर बैठाया और रोली कुमकुम का टीका लगा कर सभी कन्याओं को चुनरी ओढ़ाई और भोजन परोस कर वही बगल मे हाथ जोड़ कर बैठ गईं - “भोजन जिमों मेरी माता रानी ।"
अचानक उनके बीच मे बैठी उमा दादी की पोती उठ खड़ी हुई - “ आप गंदी हो दादी ! आज कितने प्यार से खिला रही हो रोज तो माँ को कहती हो बेटी पैदा करके रख दी । अब बताओ अगर बेटियाँ नहीं पैदा होती तो तुम कन्या कहाँ से लाती और किसको खिलाती, कैसे कन्या पूजन करती ?"
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय कुशवाह जी इस मानसिकता को बदलने की अवश्यकत है , आपने हमारी रचनाओं को समय दिया आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीया प्राची जी आपके कहने अनुसार प्रथम पंक्ति हटा दी है । आपका हार्दिक आभार ।
पता नही हर महिला पुत्र की ही कामना क्यों करती है .
बधाई.
इन दोहरे आवरणों को इंसान जाने कब तक ढोता रहेगा...
कन्याओं के प्रति अपनाए जाने वाले इस दोहरे रवैये को प्रस्तुत करती सुन्दर लघु कथा.
आ० शुभ्रांशु जी से सहमत हूँ, प्रथम पंक्ति का अर्धपूर्वांश हटा दिया जाए तो अंत का पंच जोर से महसूस होगा
सादर.
आदरणीय शुभ्रांशु पांडे जी आपका आभार ।
आदरणीय अन्न्पूर्णा जी,
ये तो वही बात हो गयी कि देश भक्त तो पैदा हों लेकिन पडो़स के घर में...
पूजा के लिये कन्या तो चाहिये लेकिन बाहर से.
वैसे पहली लाइन की शुरुआत ने पूर्वाग्रही बना दिया. अन्त का पन्च धीमा हो गया..सुन्दर कथा.
सादर
आ0 आशीष जी आपका आभार ।
आ0 अमन वर्मा जी यही विडिम्बना है । आपका आभार ।
अक्सर ऐसा ही होता है गीतिका जी । आपका हार्दिक आभार ।
सुन्दर रचना !
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