अब न मैं भयभीत तुझसे, मेघ माघी..!!
मैं पड़ी थी,
एक युग से चिर निशा की कालिमा में कैद कल तक,
रश्मि से अनजान, रवि की लालिमा से भी अपरिचित,
दृष्टि में संकोच का संचार, भय से प्राण सिमटे,
दृग झुके से, अश्रु प्लावित, अधर भी अधिकार वंचित,
और यह असहाय, निर्बल चित्र ही प्रतिबिम्ब मेरा,
पी रही थी एक युग से, विष यही मैं जान अमृत,
घर-गृहस्थी-लोक-लज्जा बन चुका कर्त्तव्य मेरा,
और मुझको हो चुका था एक अपना रूप विस्मृत,
किन्तु निकली आज हूँ, मैं भी नया निज-पथ बनाने,
केश धोने वृष्टि में, रवि-रश्मियों में भीग जाने,
तोलने निज प्राण बल को क्रूर जग की क्रूरता से,
अब नियति से छीन जीवन का नया अधिकार लाने,
सुप्त मेरी आत्मा, है आज जागी
अब न मैं भयभीत तुझसे, मेघ माघी..!!
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अजय कुमार सिंह जी
सच कहूँ तो मुग्ध हूँ इस भाव प्रस्तुति पर
प्रवाह, कथ्य, शब्द, जैसे निर्बाध भाव बह चले.... प्राचीरों को खंडित कर हिम्मत बटोर सदियों से दमित नारी का हिम्मत से जाग उठना
किन्तु निकली आज हूँ, मैं भी नया निज-पथ बनाने,
केश धोने वृष्टि में, रवि-रश्मियों में भीग जाने,.....................बहुत खूबसूरत शब्द चित्र
तोलने निज प्राण बल को क्रूर जग की क्रूरता से,
अब नियति से छीन जीवन का नया अधिकार लाने,..................वाह !
बहुत बहुत बधाई स्वीकार कीजिये
CHANDRA SHEKHAR PANDEY जी - हार्दिक आभारी हूँ.
आदरणीय अजय जी, आपकी प्रस्तुतियां बेहद सुन्दर हैं, मैं इनको पढने से वंचित नहीं रह पाउंगा। बधाई।
आदरणीय अजय भाई कमाल की रचना है भाव पद इतना गहरा और कोमल है कि बस दिल को छू गई आपकी यह अप्रितम रचना भाई. निम्नांकित पंक्तियों हेतु विशेष तौर से बधाई स्वीकारें.
किन्तु निकली आज हूँ, मैं भी नया निज-पथ बनाने,
केश धोने वृष्टि में, रवि-रश्मियों में भीग जाने... आय हाय हाय भाई गज़ब गज़ब
बढ़िया प्रस्तुति है आदरणीय-
शुभकामनायें-
वाह !!! वा !! आदरणीय अजय भाई , बहुत सुन्दर रचना !! नारी शक्ति की जागृति के लिये उठे हुये क़दम को बहुत अच्छे से बयान किया है !! हार्दिक बधाई !!
सुंदर रचना प्रस्तुति, हार्दिक बधाई आदरणीय अजय जी
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