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गीत - मूढ़ तू क्या कर सकेगा, अनुभवी जग को पराजित!

मूढ़ तू क्या कर सकेगा, अनुभवी जग को पराजित!

है सदा जिसको अगोचर, प्राण की संवेदना भी,

क्यों करे तू उस जगत से प्रेम-पूरित याचना ही,

तू करेगा यत्न सारे भावना का पक्ष लेकर,

किन्तु तेरे भाग्य में होगी सदा आलोचना ही,

विश्व ही विजयी रहेगा, तू सदा होगा पराजित...

सोचता है तू, कि कर लेगा कभी यह सिद्ध, पागल !

"सृष्टि का आधार हैं, बस प्रेम के कुछ भाव कोमल,

एक दिन अवनतमुखी इस कुटिल जग का दर्प होगा,

उस दिवस होंगे, सभी कटु दंशमय आक्षेप निष्फल"

हाय! क्यों यह भ्रम हुआ है, हृदय में तेरे विराजित?

तू नहीं है वह प्रथम, जिसने कि जग से बैर पाला,

किन्तु इस निर्दय जगत का है नियम ऐसा निराला,

यत्न जिसने भी किया- विपरीत धारा के चले वह,

ज्वार ने इस सिन्धु के, उसका पराक्रम रौंद डाला,

क्या तुझे करता नहीं इतिहास इस जग का प्रभावित!

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by अजय कुमार सिंह on September 26, 2013 at 9:42pm

Dr.Prachi Singh जी - मेरा यह प्रयास आपको रूचा. इसके लिए आभारी हूँ.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 26, 2013 at 9:26pm

बहुत प्रवहमान सुन्दर गीत...

भाव सरिता जैसे निर्झर बह चली, 

तू नहीं है वह प्रथम, जिसने कि जग से बैर पाला,

किन्तु इस निर्दय जगत का है नियम ऐसा निराला,

यत्न जिसने भी किया- विपरीत धारा के चले वह,

ज्वार ने इस सिन्धु के, उसका पराक्रम रौंद डाला,

क्या तुझे करता नहीं इतिहास इस जग का प्रभावित!

बहुत सुन्दर ! हार्दिक बधाई स्वीकारें 

Comment by अजय कुमार सिंह on September 26, 2013 at 9:19pm

राजेश 'मृदु' जी एवं अभिनव अरुण जी - पाठक की सराहना ही लेखक/कवि का संबल होता है. हृदय से धन्यवाद देता हूँ.

Comment by Abhinav Arun on September 26, 2013 at 5:29pm

किन्तु इस निर्दय जगत का है नियम ऐसा निराला,

यत्न जिसने भी किया- विपरीत धारा के चले वह,

ज्वार ने इस सिन्धु के, उसका पराक्रम रौंद डाला,

क्या तुझे करता नहीं इतिहास इस जग का प्रभावित!

            ............सुन्दर अद्भुत अनुपम अप्रतिम ....सौ सौ साधुवाद बधाइयाँ श्री अजय जी !!

Comment by राजेश 'मृदु' on September 26, 2013 at 3:13pm

बहुत ही बढिया प्रस्‍तुति

मूढ़ तू क्या कर सकेगा,

अनुभवी जग को पराजित!

है सदा जिसको अगोचर,

प्राण की संवेदना भी,

क्यों करे तू उस जगत से

प्रेम-पूरित याचना ही,

तू करेगा यत्न सारे

भावना का पक्ष लेकर,

किन्तु तेरे भाग्य में

होगी सदा आलोचना ही,

विश्व ही विजयी रहेगा,

तू सदा होगा पराजित...

Comment by अजय कुमार सिंह on September 26, 2013 at 12:32am

अरुन शर्मा 'अनन्त' जी, SANDEEP KUMAR PATEL जी, vijay nikore जी, गीतिका 'वेदिका' जी -

गीत को पसन्द करने के लिए आप सभी का हार्दिक आभार. 

Comment by वेदिका on September 26, 2013 at 12:10am

लय, प्रवाह सब गुणो से युक्त गीत रचना!! बधाई !!

Comment by vijay nikore on September 25, 2013 at 7:37pm

सुन्दर प्रवाहमयी रचना । बधाई, आदरणीय अजय सिहं जी।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on September 25, 2013 at 4:17pm

आदरणीय बहुत ही सुन्दर भाव पूर्ण शिल्प से परिपूर्ण गीत के लिए बधाई स्वीकारें

जय हो

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 25, 2013 at 4:06pm

वाह क्या कहने भाई कामयाब प्रस्तुति शिल्प, कथ्य, भाव, प्रवाह एवं शब्द चयन सब कुछ दुरुस्त अपनी अपनी जगह, शुरुआत ही आपने बहुत ही सुन्दरता से की है, इस ओजपूर्ण प्रस्तुति पर दिल से बधाई प्रेषित है स्वीकार करें.

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