साथी! तोड़ न निर्दयता से चुन चुन मेरे पात...
नन्हीं एक लता मैं निर्बल,
मेरे पास न पुष्प न परिमल,
मेरा सञ्चित कोष यही बस,
कुछ पत्ते कुम्हलाये कोमल,
तोड़ न दे यह शाख अकिञ्चन, निर्मम तीव्र प्रवात...
मैं हर भोर खिलूँ मुस्काती,
पर सन्ध्या आकुलता लाती,
साँस साँस भारी गिन गिन मैं,
रजनी का हर पहर बिताती,
एक नये उज्ज्वल दिन की आशा, मेरी हर रात...
पड़ती तेरी ज्वलित दृष्टि जब,
भीत प्राण भी हो जाते तब,
सहमी सकुचायी मैं…
Added by अजय कुमार सिंह on January 22, 2014 at 3:30pm — 20 Comments
Added by अजय कुमार सिंह on January 15, 2014 at 2:04pm — 12 Comments
Added by अजय कुमार सिंह on December 19, 2013 at 12:30pm — 12 Comments
कौन जाने
सिर्फ मैं हूँ,
या कि कोई और भी है,
जो उलझता है,
तड़पता है,
झुलसता है,
कभी फिर
बुझ भी जाता है...
जो उलझता है,
कि जैसे
ज़िन्दगी के क़ायदे-क़ानून
बनकर साजिशों के तार
चारों ओर से घेरा बनाकर
हर नये सपने
हर एक ख़्वाहिश
के सीने में चुभाकर
रवायतों की सलाईयाँ,
बुनते और बिछाते जा रहे हों
मकड़ियों के जाल...
जो तड़पता है,
उसी मानिन्द
जैसे सीपियों…
Added by अजय कुमार सिंह on November 27, 2013 at 5:51pm — 13 Comments
मूढ़ तू क्या कर सकेगा, अनुभवी जग को पराजित!
है सदा जिसको अगोचर, प्राण की संवेदना भी,
क्यों करे तू उस जगत से प्रेम-पूरित याचना ही,
तू करेगा यत्न सारे भावना का पक्ष लेकर,
किन्तु तेरे भाग्य में होगी सदा आलोचना…
ContinueAdded by अजय कुमार सिंह on September 25, 2013 at 2:00am — 15 Comments
अब न मैं भयभीत तुझसे, मेघ माघी..!!
मैं पड़ी थी,
एक युग से चिर निशा की कालिमा में कैद कल तक,
रश्मि से अनजान, रवि की लालिमा से भी अपरिचित,
दृष्टि में संकोच का संचार, भय से प्राण सिमटे,
दृग झुके से, अश्रु प्लावित, अधर भी अधिकार वंचित,…
Added by अजय कुमार सिंह on September 22, 2013 at 12:33am — 8 Comments
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