साथी! तोड़ न निर्दयता से चुन चुन मेरे पात...
नन्हीं एक लता मैं निर्बल,
मेरे पास न पुष्प न परिमल,
मेरा सञ्चित कोष यही बस,
कुछ पत्ते कुम्हलाये कोमल,
तोड़ न दे यह शाख अकिञ्चन, निर्मम तीव्र प्रवात...
मैं हर भोर खिलूँ मुस्काती,
पर सन्ध्या आकुलता लाती,
साँस साँस भारी गिन गिन मैं,
रजनी का हर पहर बिताती,
एक नये उज्ज्वल दिन की आशा, मेरी हर रात...
पड़ती तेरी ज्वलित दृष्टि जब,
भीत प्राण भी हो जाते तब,
सहमी सकुचायी मैं कहती-
यह दुर्लभ सौभाग्य मिले कब,
मेरी भी काया हो जिस दिन मलय-सुवासित-स्नात...
-मौलिक एवम् अप्रकाशित
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नन्हीं एक लता मैं निर्बल,
मेरे पास न पुष्प न परिमल,
मेरा सञ्चित कोष यही बस,
कुछ पत्ते कुम्हलाये कोमल,
तोड़ न दे यह शाख अकिञ्चन, निर्मम तीव्र प्रवात............बहुत खूब.............
बहुत सुन्दर गीत ..
बहुत बहुत सुंदर, सुकोमल मन को छूता हुआ गीत ...हार्दिक बधाई आपको आदरणीय अजय जी
आदरणीय सौरभ (Saurabh Pandey) जी,
गीत की विधा में मेरे प्रयास किसी बालक द्वारा कागज़ पर खींची गयी आड़ी-तिरछी रेखाओं से अधिक कुछ भी नहीं। उस बालक के लिये आप जैसे विदुर और प्रवीण अग्रज का स्नेहिल आशीष उल्लास का अतिरेक भी है और प्रेरणा का स्रोत भी।
स्नेहाशीषाकांक्षी- अजय
भाई अजयजी, आपकी भावनाओं को लयबद्ध होते देखना सदा से मनस-तोष का कारण रहा है. गीतों के माध्यम से जिस तरह से संवेदनापूरित भावनाओं को अभिव्यक्ति मिलती है वह संतुष्ट करता है.
लतिका को बिम्ब बना कर गृहिणी की दशा को जिस तरह से आपने अभिव्यक्त किया है वह आपके हृदय की कोमलता का परिचायक है.
हार्दिक शुभेच्छाएँ
mohinichordia जी, Dr.Prachi Singh जी, Meena Pathak जी एवं rajesh kumari जी - आप सभी की सकारात्मक टिप्पणियाँ मुझ जैसे नव-हस्ताक्षर के लिये प्रेरणास्रोत हैं. स्नेह बनाये रखें. हार्दिक आभार.
नन्हीं एक लता मैं दुर्बल,
मेरे पास न पुष्प न परिमल,
मेरा सञ्चित कोष यही बस,
कुछ पत्ते कुम्हलाये कोमल,
तोड़ न दे यह शाख अकिञ्चन, निर्मम तीव्र प्रवात...वाह वाह बहुत ही सुन्दर अनुपम गीत दिल को छू गया .बहुत बहुत बधाई अजय जी
बहुत सुन्दर, सुकोमल रचना ... बधाई आप को
बहुत सुन्दर सुकोमल भाव प्रवण गीत... लता की निर्बलता के बिम्ब को बहुत ख़ूबसूरती से निभाया है
शुभकामनाएं
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