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पथिक !!!

चल दिये कहाँ ?

क्या कंटक पथ देख

विचलित हो उठे तुम

चिलचिलाती धूप की तपन मे

सुलग उठे तुम

ढूँढने छाँव, तड़प कर

चल दिये कहाँ ?

स्वप्नों की टूटी गागर

व्यथित आकुल मन

हारी हुईं अभिलाषायेँ

बिखरा कर तुम

ढूँढने नव उजास

चल दिये कहाँ ?

रेतीले !!!!

ये गर्द भरे रास्ते

मरुथल मे जल की बूंद 

मृग मरीचिका मे कस्तूरी

ढूँढने नन्दन वन

चल दिये कहाँ ?

 

अप्रकाशित एवं मौलिक

 

 

 

Views: 1685

Comment

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Comment by annapurna bajpai on September 23, 2013 at 10:19pm
आदरणीया मीना जी , आ0 जीतेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार ।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 23, 2013 at 8:30pm

अति सुंदर भाव, बहुत बहुत बधाई आदरणीया अन्नपूर्णा जी

Comment by Meena Pathak on September 23, 2013 at 7:37pm

बहुत सुन्दर आ० अन्नपूर्णा जी .. बधाई स्वीकारें 

Comment by annapurna bajpai on September 23, 2013 at 7:33pm
आदरणीय निकोर जी आपका आशीर्वाद यूं टिप्पणी के रूप मे मिलता रहे यही कामना है । सादर ।
Comment by annapurna bajpai on September 23, 2013 at 7:32pm
आदरणीय भण्डारी जी आपका हार्दिक आभार ।
Comment by annapurna bajpai on September 23, 2013 at 7:31pm
आदरणीय अनुराग जी आपका आभार ।
Comment by annapurna bajpai on September 23, 2013 at 7:30pm
आदरणीय रविकर जी आपकी टिप्पणी से मनोबल बढ़ गया , आपका हार्दिक आभार ।
Comment by vijay nikore on September 23, 2013 at 6:06pm

//स्वप्नों की टूटी गागर

व्यथित आकुल मन

हारी हुईं अभिलाषायेँ

बिखरा कर तुम

ढूँढने नव उजास

चल दिये कहाँ ?//

आपकी यह कविता मन को छू गई, आदरणिया अन्नपूर्णा जी।

शत-शत बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 23, 2013 at 5:33pm

आदरणीया , सुन्दर कविता की रचना की है !! बधाई !!

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on September 23, 2013 at 5:32pm

बहुत ही खुबसूरत शिल्प में डूबी , बंधी रचना ! बार बार बधाई

कृपया ध्यान दे...

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