मूढ़ तू क्या कर सकेगा, अनुभवी जग को पराजित!
है सदा जिसको अगोचर, प्राण की संवेदना भी,
क्यों करे तू उस जगत से प्रेम-पूरित याचना ही,
तू करेगा यत्न सारे भावना का पक्ष लेकर,
किन्तु तेरे भाग्य में होगी सदा आलोचना ही,
विश्व ही विजयी रहेगा, तू सदा होगा पराजित...
सोचता है तू, कि कर लेगा कभी यह सिद्ध, पागल !
"सृष्टि का आधार हैं, बस प्रेम के कुछ भाव कोमल,
एक दिन अवनतमुखी इस कुटिल जग का दर्प होगा,
उस दिवस होंगे, सभी कटु दंशमय आक्षेप निष्फल"
हाय! क्यों यह भ्रम हुआ है, हृदय में तेरे विराजित?
तू नहीं है वह प्रथम, जिसने कि जग से बैर पाला,
किन्तु इस निर्दय जगत का है नियम ऐसा निराला,
यत्न जिसने भी किया- विपरीत धारा के चले वह,
ज्वार ने इस सिन्धु के, उसका पराक्रम रौंद डाला,
क्या तुझे करता नहीं इतिहास इस जग का प्रभावित!
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
सादर धन्यवाद।
सुन्दर गीत रचना के लिये बधाई , आदरणीय अजय भाई !!
आदरणीय अजय जी, अत्यंत ओजस्वी, और प्रवाहमयी रचना के लिए बधाई। बहुत खूब लिखा है आपने, भावो को भी सुन्दर शब्द चयन के साथ स्पष्टता दी है। पुन: आभार इस सुन्दर रचना से साक्षात कराने के लिए।
बढ़िया गीत-
शुभकामनायें आदरणीय-
इस कलियुग के लिए उपयुक्त है यह रचना , लेकिन परिवर्तन भी तो प्रकृति का नियम है जो हो के रहेगा।
अच्छी रचना की बधाई अजयजी।
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