उठते बैठते बस एक ही ख्याल हुआ
क्यूँ जीना भी इस कदर मुहाल हुआ
लुटी आबरू तो चुप हैं सफ़ेद-पोश
ख़ामो ख्वाह की बातों पर बवाल हुआ
जलाता है रावण खुद अपना ही बुत
तमाशा ये देखो हर साल हुआ
जुबां शीरीं और खंज़र हाथ में है
"विश्वास" करना भी अब इक सवाल हुआ
सोचता हूँ बन जाऊं मैं भी नासेह
उतरा जो इस धंधे में मालामाल हुआ
घोटाले बने है सीढी तरक्की की
सियासत का ये फन भी कमाल हुआ
सरताज-ए-कायनात ये वतन मेरा
चंद कमज़र्फों के हाथों कंगाल हुआ
*मौलिक एवं अप्रकाशित*
Comment
बहुत बहुत धन्यवाद भाई अनन्त जी.
आदरणीय प्रवीन सर्वप्रथम आपका ओबीओ परिवार में हार्दिक स्वागत है, आपका प्रयास बहुत ही अच्छा हुआ थोडा और समय देकर आप इसे ग़ज़ल में परिवर्तित कर सकते हैं. इसी मंच पर पाठशाला में जाकर ग़ज़ल की जानकारी हासिल कर सकते हैं आप. इस प्रयास हेतु बधाई स्वीकारें.
भाई ब्रजेश नीरज जी, आपने एकदम उचित सलाह दी है परन्तु मेरा बह्र-ज्ञान अभी शैशवावस्था में है . मैं आगे की रचनाओं में प्रयास करूँगा .
सभी अग्रजों का अपने आशीर्वाद क लिए सादर धन्यवाद ।
अच्छी कविता है ..आदरणीय बधाई !!
सब की पोल खोलती है गज़ल बधाई प्रवीण भाई ।
बहुत अच्छा प्रयास है आपका. आपको हार्दिक बधाई!
भाई जी, एक निवेदन है कि यदि ग़ज़ल कहने की कोशिश कर रहे हैं तो बहर का जिक्र कर देना रचनाकार और पाठक दोनों के लिए अच्छा होता है.
बहुत सुंदर कृति है आदरणीय प्रवीन भाई जी.....
वाह ! अति उम्दा , आपको हार्दिक बधाई ! बेहतरीन प्रस्तुति !
घोटाले बने है सीढी तरक्की की
सियासत का ये फन भी कमाल हुआ............... बहुत सही बात कही आपने आ0 प्रवीण वर्मा जी आपको इस नज्म हेतु बधाई ।
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