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ऐ खुशी तूने अगर मुझको पुकारा ही न होता - शिज्जु शकूर

बह्रे रमल मुसम्मन सालिम(2122 2122 2122 2122)

संग तेरे मैंने कोई पल गुज़ारा ही न होता

ऐ खुशी तूने अगर मुझको पुकारा ही न होता

 

तूने ऐ जज़्बा-ए-दिल मुझको सँवारा ही न होता

आइने में लफ़्ज़ के तुझको उतारा ही न होता

 

रह गया था मैं कहीं खो कर जहां की वुसअतों मे                        वुसअत= व्यापकता

गर मुहब्बत की न होती तो सहारा ही न होता

 

रात की जल्वागरी होती अधूरी रौनकें भी

चाँद की जो बज़्म में कोई सितारा ही न होता

 

इस ज़माने में बने मा'बूद इंसां लूटते हैं                                  मा'बूद =जिसकी इबादत की जाये

सच न कहता मैं तो दुश्मन शह्र सारा ही न होता

 

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on October 5, 2013 at 9:36pm

आदरणीया राजेश दी आपने रचना को समय दिया आपका शुक्रिया, आपकी ग़ज़ल की प्रतीक्षा रहेगी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 5, 2013 at 9:34pm

महिमा जी रचना पर आपकी उपस्थिति हमेशा ही हर्षित करती है बधाई के लिये आपका आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on October 5, 2013 at 9:32pm

आदरणीय डॉ अनुराग जी, आदरणीय रमेश जी हौसलाअफ़्ज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया

Comment by बृजेश नीरज on October 5, 2013 at 7:45pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by Sachin Dev on October 5, 2013 at 1:57pm

खूबसूरत गजल पर हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय ! 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 5, 2013 at 11:57am

इस ज़माने में बने मा'बूद इंसां लूटते हैं                                 

सच न कहता मैं तो दुश्मन शह्र सारा ही न होता....वाह ! क्या बात है

बेहद खुबसूरत गजल, बहुत बहुत बधाई आदरणीय शिज्जू जी

 

Comment by coontee mukerji on October 5, 2013 at 12:43am

संग तेरे मैंने कोई पल गुज़ारा ही न होता

ऐ खुशी तूने अगर मुझको पुकारा ही न होता........बहुत उम्दा.

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 5, 2013 at 12:08am

बधाई.. बहुत-बहुत बधाई,शिज्जूजी .

Comment by annapurna bajpai on October 4, 2013 at 11:39pm

क्या खूब गजल कही है आ0 शिजू जी , बहुत बधाई स्वीकारें । 

Comment by वीनस केसरी on October 4, 2013 at 11:00pm

वाह वा पूरी ग़ज़ल शानदार है
आख़िरी के तीन शेर कमाल हैं ....

बेहद शानदर ग़ज़ल ,,,,,

रह गया था मैं कहीं खो कर जहां की वुसअतों मे                  

गर मुहब्बत की न होती तो सहारा ही न होता

 

रात की जल्वागरी होती अधूरी रौनकें भी

चाँद की जो बज़्म में कोई सितारा ही न होता

 

इस ज़माने में बने मा'बूद इंसां लूटते हैं          

सच न कहता मैं तो दुश्मन शह्र सारा ही न होता

आख़िरी शेर ने तो लाजवाब कर दिया ,,,,,
को जो से तब्दील करके देखें तो लुत्फ़ और बढ़ता है

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