कलाम सबकी जुबाँ पर है लाकलाम तेरा।
सलाम करता है झुक कर तुझे गुलाम तेरा।
वो पाक़ साफ है इल्जाम न लगा उस पर,
करेगा काम वो वैसा ही जैसा दाम तेरा।
किसी को ताज़ किसी को दिये फटे कपड़े,
बड़े गज़ब का है दुनिया मे इन्तजाम तेरा।
जो अपने आप को पहुँचा हुआ समझते हैं,
समझ में उनके भी आता नहीं है काम तेरा।
तेरे ही नाम से होते हैं सारे काम मेरे,
मैं मरते वक्त तक लेता रहूँगा नाम तेरा।
मौलिक अप्रकाशित अप्रसारित
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//कलाम सबकी जुबाँ पर है लाकलाम तेरा।
के साथ मैं मरते वक्त तक लेता रहूँगा नाम तेरा।//
ऐसा करने से काफिया स्तर पर ग़ज़ल दुरुस्त हो जायेगी ।
आदरणीय यह प्राकृतिक / कागज़ के फूल, खुशबु आदि का ग़ज़ल के नियम से क्या लेना देना ? मैं तो बस इतना जानता हूँ कि यदि जिस भी विधा में लेखन हो उसके स्थापित नियमों का पालन हो और यदि ऐब भी हो तो वो मान्य छुट के दायरे में हो, बस इतना ही कहना है ।
//दोष भी कभी कभी नगण्य हो जाता है अगर शेर प्रभावशील हो। ऐसा मेरा मत है हो सकता है मेरा कथन गलत हो। हो सकता है यह मेरा कुतर्क भी हो//
आदरणीय मुझे ऐसा ही लगा ।
सादर ।
//वक्त+तक जब पढ़ते हैं तो 'त साइलेन्ट हो जाता है ऐसा आभास होता है परन्तु यह दोष है इसे मैं मानता हँ। //
आद. श्री रामअवध जी. 'त' लुप्त होता है से आपका अभिप्राय कदाचित अलिफ़ वस्ल के नियम से है। किन्तु स्वयं ध्यान दें कि यदि 'त' साइलेंट हो रहा है तो 'तक' को आप किस प्रकार ११ अथवा उसे बाँट कर उसके 'क' को १ गिन सकते हैं? आपके कथनानुसार यह 'वक़्तक' होगा जो कि मेरे विचार से २२ होगा।
//पुन: हिन्दी ने बिन्दी कभी स्वीकार नहीं किया। क्याकि उदर्ू मे 'ज के लिये इतने अक्षर है - जीम, जाल, जे , जे, ज्वाद । चार अक्षरो के लिये कितनी बिनिदयाँ कहाँ - कहँ बेचारी हिन्दी माता लगायेंगी इसलिये हिन्दी को हिन्दी के मीटर से नापें बजाये उदर्ू के मीटर से नापने के।//
जी आपकी बात सही है। जीम, ज़ाल, ज़े, ज़े, ज़्वाद,ज़ोए आदि। जैसे के 'ह' के लिए बड़ी हे, छोटी हे, अस्तु दो चश्मी हे भी प्रयोग में ले आई जाती है, 'स' के लिए सीन, स्वाद और से प्रयोग होते हैं किन्तु उनके उच्चारण में कोई अंतर नहीं है। जीम, और फ़ारसी ज़े को छोड़ दें तो ज़ाल, ज़े, ज़्वाद, ज़ोए इन सभी का उच्चारण एक पूर्णतः एक समान है। अतः यहाँ देवनागरी लिपि है तो उर्दू हर्फ़ का प्रश्न ही कहाँ उठा? मैं केवल उच्चारण की बात कर रहा था जो मुझे आपकी पोस्ट के शीर्षक 'ग़ज़ल' को देख कर लगा कि आप इस का विशेष ध्यान रखते हैं इसलिए यह चर्चा कर बैठा। संभवतः इसी कारणवश हम सभी के उच्चारण में और सुधार भी आता है जो कि भाषा और साहित्य के दृष्टिकोण से एक अच्छा लक्षण है। शेष, आपकी जो भी प्रिय भाषाई शैली हो वह मुझे सहज स्वीकार्य है। सादर,
आदरणीय बागी जी
आप शायद यह कहना चाह रहे हैं कि लाकलाम काफिये के साथ यदि मतले में सलाम आया है तो आगे के काफिये में अन्त में लाम ही आना चाहिये। नियम तो यही कहता है तो क्या कलाम सबकी जुबाँ पर है लाकलाम तेरा। के साथ मैं मरते वक्त तक लेता रहूँगा नाम तेरा। मिसरा लगाने से गजल मुकम्मल हो जायेगी। यहाँ मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि कागज के फूल में यदि महक न हो तो बेशक साँचे में पूर्णतय: ढला हो मगर लोगों को आकर्षित नहीं कर सकता है परन्तु प्राकृतिक फूल की एक पंखुड़ी अगर बेतरतीब हो तो भी उसकी खुशबू दूर दूर तक लोगों को आकर्षित करती है। और शायद एक पंखुड़ी की बेतरतीबी को लोग इतना महत्व नहीं देते जबकि सभी पंखुडि़याँ तरतीब से होनी चाहिये। अन्यथा नियम के अनुसार तो फूल का होना निर्थक होगा । दोष भी कभी कभी नगण्य हो जाता है अगर शेर प्रभावशील हो। ऐसा मेरा मत है हो सकता है मेरा कथन गलत हो। हो सकता है यह मेरा कुतर्क भी हो।
आदरणीय शकूर जी ,
यदि वक्त में 'त'अक्षर के नीचे हलन्त लग जाये तो वह आधा अक्षर माना जाता है ऐसी सिथती में -
मैंमरतेवक्त तकलेता रहूँगाना मतेरा
मफाइलुन फइलातुन मफाइलुन फेलुन
1212 1122 1212 22
हो जावेगा और इस प्रकार सम्पूर्ण गजल बहर में होगी । परन्तु इसे विद्वान शायर क्या मान्यता देंगे।
विचारणीय प्रश्न है। वैसे कोर्इ भी अक्षर साइलेन्ट नहीं किया जा सकता है। परन्तु जैसा कि आप जानते हैं दीर्घ को गिराकर लघु किया जा सकता है।
शिज्जू जी, आप ख़ास मिसरे पर ठिठक गए और मैं मतले पर अटक गया…………
कलाम सबकी जुबाँ पर है लाकलाम तेरा।
सलाम करता है झुक कर तुझे गुलाम तेरा।
आदरणीय राम अवध जी, कृपया एक बार पुनः काफिया पर नजर ड़ाले, क्या अन्य अशआर में मतले के अनुसार काफिया का निर्वहन हुआ है ?
आदरणीय राम अवध जी सबसे पहले तो आप इस ग़ज़ल के लिये दिली दाद कुबूल करें, सारे अशआर कसे हुये हैं, बधाई आपको
मैं भी उसी मिसरे पे ठिठक गया जिसका जिक्र आदरणीय संदीप द्विवेदी जी ने किया है
वो पाक़ साफ है इल्जाम न लगा उस पर (1212 1122 1112 22), इस बात की जानकारी मुझे नही है कि इस अरकान में 1212 तो 1112 किया जा सकता है या नही?
मैं मरते वक्त तक लेता रहूँगा नाम तेरा
1212 1222 1212 112
वक्त+तक जब पढ़ते हैं तो 'त साइलेन्ट हो जाता है ऐसा आभास होता है
यहाँ भी मेरी शंका यही है कि इस तरह हिन्दी ग़ज़ल में हर्फ़ को साइलेन्ट किया जा सकता है क्या?
आदरणीय श्री गिरिराज भंडारी जी कोर्इ भी व्यकित अपने आप मे सम्पूर्ण ज्ञानी नहीं होता है। एक दूसरे से चर्चा करके अपने ज्ञान में वृद्धि करता है।
मैं भी आप लोगों का कृतार्थ हूँ जो मुझे निरन्तर ज्ञान प्रदान करते रहते हैं। मेरीें व्यंग्य गजलों की दो पुस्तकें सन 94 में एवं 2005 में दिल्ली एवं ग्वालियर से प्रकाशित हो चुकी हैं। एक पुस्तक 2010 में गध व्यंग्य की दिल्ली से प्रकाशित हो चुकी है। जनवरी 2013 में एक पुस्तक गजलों पर दिल्ली से प्रकाशित हो रही है। आप जैसे मित्रों का हृदय से आभारी हूँ जिनके द्वारा त्रुटियों में सुधार का अवसर मिला। पुन: धन्यवाद।
आदरनणीय , राम भाई , खुद अधूरा ज्ञान रख के सलाह दे दिया था , शर्मिन्दा हूँ !! फिर भी आपने सलाह को मान दिया , आपका बहुत आभार !! आदरणीय सौरभ भाई एवँ आदरणीय सन्दीप ' वाहिद " भाई , आपका भी आभार , आपने स्थिति साफ कर दी !!
आदरणीय श्री सौरभ पाण्डे जी
किसी भी विधा की बारीकियाँ स्वस्थ एवं सार्थक चर्चा द्वारा ही सीखी जा सकती हैं। ओपेन बुक्स आन लाइन की बड़ी कृपा है जो इतना ज्ञान वर्धक मंच पाठकों , कवियों एवं लेखकों को उपलब्ध कराया। कभी - कभी स्वयं की त्रुटियाँ नहीं दिखार्इ देतीं। परन्तु दूसरे विद्वान व्यकित तुरन्त पकड़ लेते हैंं।
आपका आपके प्रयास के साथ स्वागत है.
बेहतर और सार्थक चर्चा के लिए आदरणीय गिरिराजजी, संदीपभाईजी तथा आपको हृदय से बधाई.
शुभ-शुभ
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