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सॉरी सर (कहानी ) अंक -१

सॉरी सर (कहानी )
लेखक - सतीश मापतपुरी
अंक - १
मनोविज्ञान का ज्ञाता होना अलग बात है,अपनी मनोदशा पर नियंत्रण पा लेना  बिल्कुल  अलग बात.शायद मन का भाव चेहरा पर लिख जाता है अन्यथा प्रो.सिन्हा से   प्रो.वर्मा. यह नहीं पूछ बैठते------"कुछ परेशान दिख रहे हैं
सिन्हा साहेब, क्या बात है?"
"नहीं तो,परेशानी जैसी कोई बात नहीं है." और एक मरियल सी मुस्कान प्रो.सिन्हा के सूखे होठों पर अलसाई
सी पसर गई.संभवत: आदमी ही सृष्टि का एकमात्र वो अजीबोगरीब जीव है जो एक साथ सैकड़ो झूठ ओढ़े भी जी सकता है.प्रो.सिन्हा अच्छी तरह जानते थे कि उनकी  मन:स्थिति से लोग अनिभिज्ञ  नहीं हैं. कॉलेज में दबी ज़बान
लोग उनके सम्बन्ध में तरह-तरह की बातें करने लगे थे. अंग्रेजी के प्रो. एम.के.वर्मा,जो अपनी मजाकिया शैली और हंसोड़ प्रवृति के कारण काफी चर्चित थे,भला इस दुर्लभ अवसर को अपने हाथों से कैसे जाने देते?जार्ज बर्नाड शा और शेक्सपियर के नाटकों का चरित्र-चित्रण पढ़ाते-पढ़ाते किसी का चरित्र-चित्रण करने की एक अनोखी
एवं अदभुत कला प्रो.वर्मा में विकसित हो चुकी थी.प्रो.सिन्हा की परेशानी को आधार बनाकर उन्होंने कुछ काल्पनिक कहानियां गढ़ ली थी और सबसे अलग-अलग ढंग से कहकर  प्रो.सिन्हा को अच्छा-खासा मजाक बना दिया था.
एक दिन इसी प्रकरण पर प्रो. वर्मा का धाराप्रवाह व्यख्यान चल ही रहा था कि अचानक प्रो.सिन्हा अंग्रेजी विभाग में
आ धमके. वर्मा जी उन्हें देखकर झेंप गए.प्रो.सिन्हा ने  शालीनता के साथ  सिर्फ इतना ही कहा - "जीवन के कुछ पहलू ऐसे भी होते हैं वर्मा साहेब, जिन पर हंसी -मजाक शोभा नहीं देता.मैं आप पर टीका-टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ,
आप न सिर्फ मुझसे उम्र में बड़े हैं बल्कि मेरे लिए सम्मानित भी हैं" फिर प्रो. सिन्हा वहाँ एक पल भी नहीं ठहरे.
वर्मा साहेब को पहली बार अनुभूति हुई कि "अति सर्वत्र वर्जते".
                      मनोविज्ञान विभाग में आने के बाद भी प्रो.सिन्हा को लग रहा था कि वे अंग्रेजी विभाग में ही हैं और सब उन पर हँस रहे हैं.वे पूरी शक्ति लगाकर चिल्ला उठे -"चुप हो जाइए आपलोग."बाहर स्टूल पर बैठा चपरासी दौड़ा  हुआ आया -"कुछ कह रहे हैं साहेब"
"नहीं,तुम जाओ." चपरासी सर हिलाकर बाहर चला गया. प्रो.सिन्हा ने जेब से मुड़ा-तुड़ा एक छोटा सा पत्र निकाला और खोलते -खोलते न जानें क्या सोचकर पुन: जेब में रख लिया.शायद एक बार फिर पढ़ने का साहस नहीं जुटा सके, पढ़ 
कर भी क्या होता? अब तक वे सैकड़ो बार इस पत्र को पढ़ चुके थे और हजारों बार अपनी नज़रों से गिर चुके थे.
उन्हें अपना कद बौना नज़र आने लगा था.प्रो. सिन्हा यह सोचकर ग्लानि से भर उठे थे कि न जाने उनके भीतर यह 
विकार कब से फलता -फुलता आ रहा था.मनोविज्ञान के अनेक संवेदनशील पक्षों पर सारगर्भित तर्क प्रस्तुत करने वाले प्रो. भवेश चन्द्र सिन्हा अपने भीतर के विकार को क्यों नहीं पहचान सके......... यह बात उन्हें भीतर ही  भीतरखाए जा रही थी.औरों की नज़रों से गिरकर तो इंसान संभल भी सकता है पर अपनी नज़रों से गिरकर संभलना कष्टप्रद भी होता   और लज्जास्पद भी.उन्हें अपनी प्रतिभा,विद्वता,क्षमता,दक्षता सब बेमानी लगने लगी थी.सामने वाले का चेहरा देखकर मन का भाव  पढ़ने में दक्ष माने जानेवाले प्रो. भवेश चन्द्र सिन्हा इक्कीस वर्ष की युवती के मन का भाव पढ़ने में क्यों चुक गए?........... सौन्दर्य की चकाचौंध में उनका ज्ञान-चक्षु क्यों चौंधिया गया?......... उनकी सारी प्रतिभा,सारी विद्वता यौवन की धरातल पर क्यों फिसल गयी?..... क्या उनके ज्ञान में मात्र उंचाई है,गहराई नहीं? इसी तरह की बातें इन दिनों प्रो.सिन्हा को परेशान कर रही थी,अन्यथा दर्जनों मोटी-मोटी पुस्तकों के लेखक के जीवन में किसी की चार पंक्तियाँ यूँ भूचाल न ला देती..................................(क्रमश:)
            शेष अगले अंक में

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Comment by satish mapatpuri on January 14, 2011 at 3:45pm
गणेशजी, मेरी कहानी पढ़ने और मेरा उत्साहवर्द्धन के लिए शुक्रिया.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 13, 2011 at 8:03pm
आदरणीय सतीश मापतपुरी जी, ओपन बुक्स ऑनलाइन पर सर्वप्रथम धारावाहिक कथा शुरू करने हेतु आपको कोटिश : धन्यवाद, प्रथम अंक मे ही आपने कहानी पर पकड़ बनानी शुरू कर दिया है | उम्म्मीद करते है कि आगे के अंकों मे कहानी मे रोचकता होगी, बहुत बढ़िया प्रयास है , बधाई हो !

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