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ग़ज़ल- लगा दूँ आग पानी में

1222. 1222. 1222

जरा ठहरो लगा दूँ आग पानी में
कहीं गुम हो न जाए फाग पानी में

कहीं तो डोलती होगी हवा मीठी
पकड़ कर खींच लाऊँ राग पानी में

चले तो थे कदम उसके यहीं शायद
चहकता तो नहीं है काग पानी में

फिज़ाओं में कभी तो रौनकें होंगी
लहकता बोलता है बाग पानी में

न आ जाए कहीं सैलाब उठ जा भी
कहीं तू बह न जाए जाग पानी में
पूनम शुक्ला

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Saurabh Pandey on October 16, 2013 at 12:07pm

पुनमजी, बधाइयाँ. आपकी कोशिश संयत है. अरूज़ के अनुसार ग़ज़ल को निभा ले जाना कहीं से कमतर नहीं होता.

ये कोशिश ज़रूर रंग लायेगी.   शुभकामनाएँ

Comment by वीनस केसरी on October 12, 2013 at 2:09am

कहीं तो डोलती होगी हवा मीठी
पकड़ कर खींच लाऊँ राग पानी में

यह एक शेर पसंद आया ... ग़ज़ल के अन्य शेर कफिया को निभाने के लिए कहे गए प्रतीत होते हैं ... ऐसा बनावटीपन ग़ज़ल को हल्का कर देता है

Comment by Sushil.Joshi on October 9, 2013 at 5:05am

इस खूबसूरत गज़ल के लिए बधाई संप्रेषित है आदरणीया पूनम जी...

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 8, 2013 at 11:02pm

वाह आदरणीया पूनम जी वाह एक बेहद शानदार ग़ज़ल क्या कहने मजा आ गया दिल से बधाई स्वीकारें.

Comment by annapurna bajpai on October 8, 2013 at 11:02pm

आदरणीया पूनम जी बहुत ही बढ़िया गज़ल के लिए दिली दाद कुबूल करें । 

Comment by Sarita Bhatia on October 8, 2013 at 9:20am

आदरणीया पूनम जी खुबसूरत गजल ,बधाई स्वीकार करें 

Comment by कल्पना रामानी on October 7, 2013 at 9:09pm

सुंदर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई पूनम जी

Comment by Poonam Shukla on October 7, 2013 at 8:40pm
मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 7, 2013 at 8:31pm

आदरणीया पूनम शुक्ल जी, बहुत ही अच्छी ग़ज़ल हुई है, सभी शेर अच्छे लगें, चौथा शेर एक बार पुनः देख लें, तकाबुले रदीफ़ नामक ऐब परिलक्षित है । 

कभी तो रौनकें होगी फिज़ाओं में
लहकता बोलता है बाग पानी में

निराकरण सुझाव :-

फिज़ाओं में कभी तो रौनकें होगी 

बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर । 

Comment by डॉ. अनुराग सैनी on October 7, 2013 at 5:52pm

हार्दिक बधाई भाव पूर्ण ग़ज़ल है !

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