हाय री किस्मत्
देखो सारे कर रहे, दूजा इन्क्रीमैंट,
अपना पिछले वर्ष का, बाकी है पेमैंट।
बाकी है पेमैंट, करो मत जल्दी-जल्दी,
कई ‘अटल’ हैं हाय, चढ़ानी जिनको हल्दी।
कह ‘जोशी’ कविराय, सभी किस्मत के मारे,
खाते लंगर भात, आजकल देखो सारे।
------------------------------------ सुशील जोशी
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
इस स्नेहिल टिप्पणी के लिए अतिश: धन्यवाद आपका आदरणीया राजेश कुमारी जी.....
कई ‘अटल’ हैं हाय, चढ़ानी जिनको हल्दी। हाहाहा हल्दी से ही रंग चोखा होगा ,मजेदार कुण्डलिया लिखी है सुशील जी वाह ,बधाई आपको
आपका ह्रदय की गहराइयों से आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी जी....
हार्दिक आभार आपका आदरणीय कुंती मुखर्जी.....
इस स्नेह के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय प्रदीप जी....
सही कहा आदरणीय कपीश चंद्र जी..... लेकिन यहां विडंबना यह है कि मैं एक निजी कार्यालय में कार्यरत हूँ और वहाँ के भी यही हाल हैं.... या यूँ कहें कि वस्तुत: अपने ही कार्यालय के प्रति यह कटाक्ष रचा था मैंने और अपने एवं अपने साथियों की ही स्थिति बयाँ की है.... टिप्पणी के लिए सादर आभार आपका...
वाह वाह आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी..... खूब दोहा कहा है.... साथ ही मेरी इस रचना को पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार....
सराहना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका आदरणीय शिज्जू भाई जी....
वाह वा !!!! आदरणीय सुशील भाई , मध्यम वर्गीय कर्मचारी के दुखों से सुन्दर परिचय कराया आपने !! बहुत बधाई !!!
आज का एक और कड़वा सत्य.
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