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दिल में हमारे कैसे ये तूफ़ान जिन्दा रह गया

दिल के बिना जैसे कोई नादान जिन्दा रह गया

वैसे हो बेघर इक हसीं अरमान जिन्दा रह गया 

 

है आदमी ही आदमी की जान का दुश्मन हुआ

यारों खुदा का है करम इंसान जिन्दा रह गया

 

टूटा हमारा  हौसला उम्मीद फिर भी थी जवां

रख आरजू जीने की ये बेजान जिन्दा रह गया

 

मेरे खुदा मुझ पर तेरा रहमो करम हरदम रहा

तूफ़ान में अदना सा ये इंसान जिन्दा रह गया

 

लगते रहे हर रोज ही इल्जाम तो हम पर बड़े  

माँ की दुआओं से मेरा सम्मान जिन्दा रह गया 

 

होता नहीं था हम पे तो दीवानगी का कुछ असर

दिल में हमारे कैसे ये तूफ़ान जिन्दा रह गया 

 

नाजुक  हसीं गुल की हँसी उतरी थी दिल में जिस घड़ी

दिल में उसी पल से हसीं मेंहमान जिन्दा रह गया 

डॉ आशुतोष मिश्र 

मौलिक व अप्रकाशित 

Views: 804

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Comment by कल्पना रामानी on October 13, 2013 at 10:22pm

लगते रहे हर रोज ही इल्जाम तो हम पर बड़े  

माँ की दुआओं से मेरा सम्मान जिन्दा रह गया...इस सुंदर शे'र के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें आदरणीय


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 13, 2013 at 9:33pm

आदरणीय आशुतोष भाई , लाजवाब गज़ल कही है आपने !!! बधाई !! दूसरे और चौथे शेर मे तकाबुले रदीफ दोष दिख रहा है !!! ज़रा देख लीजियेगा !!!!

लगते रहे हर रोज ही इल्जाम तो हम पर बड़े  

माँ की दुआओं से मेरा सम्मान जिन्दा रह गया  ---------- इस शेर के लिये ढेरों दाद कुबूल करें

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