तेरी कान्हा बांसुरी, छेड़े ऐसी तान
जिसकी धुन में मन रमा, बिसरा सुध-बुध-ध्यान
बिसरा सुध-बुध-ध्यान, मोह के बंधन छूटे
जग माया का जाल, दर्प के दरपन टूटे
हुआ क्लेश का नाश, पीर सब हर ली मेरी
पर ये क्या बैराग? लुभाती है छवि तेरी !!
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
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कान्हा तेरी बांसुरी, छेड़े ऐसी तान
जिसकी धुन में मन रमा, बिसरा सुध-बुध-ध्यान
बिसरा सुध-बुध-ध्यान, मोह के बंधन छूटे
जग है माया जाल, दरपन छन्न से टूटे
हुआ क्लेश का नाश, पीर हर ली सब मेरी
ये कैसा बैराग, ह्रदय छवि कान्हा तेरी ।
भईया, मैंने कई कवि गण को पहले शब्द समूह को अंतिम शब्द समूह बनाते हुए पढ़ा है, उसी अनुसार "कान्हा तेरी" को अंतिम में प्रयोग किया है, क्या यह मान्य नहीं है ?
जग है माया जाल, छन्न से दरपन टूटे
ऐसे करने से बात बनेगी क्या ?
जी, नियमतः,
१. आप तो जानते ही हैं कि कुण्डलिया छंद का पहला शब्द या शब्दांश और उसका अंतिम शब्द या शब्दांश समान होते हैं.
२. फिर, चौथे पद का विन्यास आपने बदल दिया है, वह भी रोला छंद के शब्द-संयोजन नियम के अनुसार नहीं है. दरपन शब्द चौकल है जो रोला के सम चरण का प्रारम्भ हो ही नहीं सकता.
शुभेच्छाएँ
//सुझाव के रूप में उद्दृत बंद तो कुण्डलिया छंद के विधान के हिसाब से ही ख़ारिज़ है !//
मैं समझा नहीं आदरणीय कृपया जरा और विस्तार दें ।
कान्हा तेरी बांसुरी, छेड़े ऐसी तान
जिसकी धुन में मन रमा, बिसरा सुध-बुध-ध्यान
बिसरा सुध-बुध-ध्यान, मोह के बंधन छूटे
जग है माया जाल, दरपन छन्न से टूटे
हुआ क्लेश का नाश, हर ली पीर सब मेरी
ये कैसा बैराग, ह्रदय छवि कान्हा तेरी ।
यह सुझाव कैसे दिया गणेश भाई आपने ? सुझाव के रूप में उद्दृत बंद तो कुण्डलिया छंद के विधान के हिसाब से ही ख़ारिज़ है ! ..
:-(((
कृपया देख लीजियेगा.
आदरणीया राजेश कुमारीजी, आपने गणेश भाई के कहे का अनुमोदन तो किया है, लेकिन छंद प्रस्तुति के अंतिम पद को वही रहने दिया जो वस्तुतः मूल प्रस्तुति में है -- ये कैसा बैराग ? लुभाती है छवि तेरी .
सही कहा जाय, तो यही पद वाकई मूल प्रस्तुति का अति उत्कृष्ट पद है, किसी पंच लाइन की तरह, जो गोपिकाओं के ’बैराग’ में प्रतीत हो रहे विरोधाभास को समक्ष ला रहा है.
बैरागियों के हृदय में किसी उत्कृष्टतम की छवि का होना असंभव नहीं है, जबकि किसी छवि का ’लुभाना’ बैरागियों के लिए निषिद्ध है ! .. :-)))
यही विरोध तो उक्त पद की सुन्दरता है जो कुण्डलिया की विशेषता बन कर उभरी है !
बृजेश भाई जी, आप द्वारा प्रस्तुत यह संभवतः कोई पहली कुण्डलिया छंद है ?!.. इसके संयतपन से आपके प्रति अपेक्षाएँ कई गुना बढ़ गयी हैं ..
बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें, भाईजी.
वाह बहुत ही सुन्दर कुण्डलिया ब्रिजेश जी ,मन मोहक मुग्ध करते भाव ,हार्दिक बधाई आपको | मैं भी आदरणीय गणेश जी कि बात का समर्थन करती हूँ अंतिम पंक्ति यूँ हो जाए तो चारचांद लग जाएँ ----ये कैसा बैराग ? लुभाती है छवि तेरी |
बेहद सुंदर भाव, अनुपम रचना बहुत बहुत बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी
कान्हा तेरी बांसुरी, छेड़े ऐसी तान
जिसकी धुन में मन रमा, बिसरा सुध-बुध-ध्यान
बिसरा सुध-बुध-ध्यान, मोह के बंधन छूटे
जग है माया जाल, दरपन छन्न से टूटे
हुआ क्लेश का नाश, पीर हर ली सब मेरी
ये कैसा बैराग, ह्रदय छवि कान्हा तेरी ।
वाह बृजेश भाई, बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति है, बधाई स्वीकार करें ।
खूबसूरत आदरणीय बृजेश नीरज सर। हालांकि मुझे शिल्प की जानकारी नहीं है, पर भाव से अभिभूम हूं। बधाई स्वीकार करें।
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