जाने किस आशंका से
त्रस्त मन /
झंझावात मे
नन्हा सा दिया /
अब बुझा कि तब बुझा /
अर्थहीन शब्दों के सहारे
घिसटती ज़िन्दगी
क्या यही है ?
किम्वदन्ति बन गई है
तथागत को मिली शान्ति /
आत्म मंथन करने पर
कालिख ही कालिख हाथ लगी /
दोषारोपण सवेरो पर ,
सूरज की किरणे
किसी अंधी गली में सोई मिली ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
अरविन्द भटनागर 'शेखर'
Comment
आदरणीय अरविंद जी बहुत ही सुन्दर रचना गहन भाव बहुत ही बधाई स्वीकारें
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