घर में वह नोट कितना बड़ा लग रहा था , मगर बाज़ार में आते ही बौना हो कर रह गया । वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या खरीदें , क्या न खरीदें । मुन्ना निश्चय ही पटाखे - फुलझड़ियों का इंतज़ार कर रहा होगा । उसकी बीवी खोवा, मिठाई , खील- बताशे और लक्ष्मी - गणेश की मूर्तियों की आशा लिए बैठी होगी, ताकि रात की पूजा सही तरीके से हो सके ।
वह बड़ी देर तक बाज़ार में इधर उधर भटकता रहा । शायद कहीं कुछ सस्ता मिल जाए । मगर भाव तो हर मिनट में चढ़ते ही जा रहे थे । हार कर उसने कुछ भी खरीदने का इरादा छोड़ दिया । मगर घर लौट कर मुन्ना और अपनी बीवी की निराश आँखों का सामना करने का साहस वह नहीं जुटा पाया । निरुद्देश्य सा वह बड़ी देर तक इधर-उधर भटकता रहा । वह नोट अभी भी उसकी जेब में पड़ा था ।
रात हो चुकी है । सारा शहर रोशनी से जगमगा रहा है । पटाखों की धमक से आसमान गूंज रहा है। मुन्ना अपने पापा का इंतजार कर रहा है और पापा नशे में चूर डगमगाते कदमो से घर की ओरे लौट रहा है । वह नोट अब उसकी जेब में नहीं है । वह जानता है कि घर में अब कोई उसके सामने नहीं पड़ेगा । उसकी पत्नी उसका खाना उसके सामने रख कर चुपचाप चली जाएगी । मुन्ना डरा-सहमा किसी कोने में दुबक जायेगा ।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
अरविन्द भटनागर' शेखर'
Comment
बहुत आभार आदरणीय प्राची जी
बहुत गहरे स्पर्श करती है आपकी यह लघु कथा..
महँगाई, लाचारी, सपनों को रौंदती... समाज में व्याप्त दीखती सी विसंगतियों के कारण पर कलम रखती एक संवेदनशील प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई आ० अरविन्द भटनागर जी
कहानी का प्रारंभिक चित्रण बहुत ही यथार्थ परक प्रभावशाली लगा इस हेतु आपको ढेरो बधाई ।
धन्यवाद् आदरणीय जीतेन्द्र जी ,चर्चित जी ,लक्ष्मण प्रसाद जी
गरीबी का दर्द झेलते गम में मैखाने से लौटते हमारे देश में अभी भी हर शहर में मिल जायेंगे |
सुरसा समान नित बढती महंगाई के दर्द की मार्मिक कथा के लिए हार्दिक बधाई
दीवाली पर वो कसैला एहसास जो हर आम आदमी को होता है.....उसी एह्सास की खुशबू से महकती लघु कथा.... अत्यन्त सराहनीय !!!!
गरीबी की दर्द भरी सच्चाई पर इस मार्मिक लघु कथा के लिए बधाई।
इसी प्रष्ठ्भूमि पर लिखा मेरा स्वयं जीया हुआ संस्मरण "भूख" शायद
आपने लगभग २ सप्ताह हुए यहाँ ओ बी ओ पर पढ़ा होगा।
सौरभ जी कि निम्न पंक्तियाँ भी बहुत अच्छी लगीं। उनको भी बधाई।
बहुत ही हृदयस्पर्शी लघु कथा, बधाई स्वीकारें आदरणीय अरविन्द जी
आ0 अरविन्द भार्इ जी, वाह..वाह...वाह....किन्तु इस वाह वाह में भी इक नश्तर कहीं छुपा हुआ है। सौरभ सर जी ने बिलकुल सही कहा है कि गर मनुष्य विपदाओं से अथवा जटिलताओं में मुख मोड़ लेगा तो यह संसार निश्संदेह गर्त में मिल जाएगा। जहां एक ओर आपने यथार्थ का अप्रतिम रेखांकन किया है, वहीं इसमें रंगों के चयन में कुछ खामियां रह गर्इ। फिलहाल अन्तरात्मा को प्रभावित करती सुन्दर रचना के लिए आपको तहेदिल से हार्दिक बधार्इ। सादर,
आदरणीय सारथी जी आपकी सराहना एवं .हौसला अफजाई का शुक्रिया .....
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