नाव है, पतवार नहीं
भाव है, पर शब्द नहीं
शब्द साधे पर,
अभिव्यक्ति का
सलीका नहीं |
छंद का ज्ञान कर,
शिल्प को साध कर
कविता गढ़ दी
बार बार पढ़कर
पाया,
कविता में वह-
मधुर तान नहीं |
तब, कविता लिखा
कागद फाड़कर,
डालता रहा-
कूड़ेदान में,
कलम हाथ में पकडे
पकड़कर माथा,
गडा दी आँखे
घूरते कागजो के-
कूड़ेदान में |
फिर आहिस्ता से
सिर उठाया-
आसमान की बुलंदी देख
होंसला बढाया,
कलम को कागज पर
नाव की तरह चलाया |
शाम ढले
कलम को घिसते
खेत होती श्याही
थकती उँगलियों देख
जैसे ही हाथ हटाया-
एक विद्वजन कवि
का सामने आया |
उसका चेहरा पढ़ा,
चेहरे को पढ़कर
कर में, कलम थामकर
लिखने का मन
फिर बनाया,
पीछे से किसी ने
पीठ थपथपाई
बोले- डटें रहो,
प्रयास आपका
रंग ला रहा है |
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Comment
आर्दिक आभार आपका आ. अन्नपूर्णा बाजपाई जी | सादर
अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया , आ0 लड़ी वाला जी बधाई आपको ।
रचना सुन्दर और सार्थक बता कर आपने रचना का मान बढ़ा दिया | मेरा प्रयास सार्थक हो गया | आपका हार्दिक आभार श्री सुशिल जोशी जी | सादर
रचना पसंद करने के लिए आपका आभार श्री राम शिरोमणि पाठक जी एवं श्री रमेश कुमार चौहान जी
आपको रचना रोचक लगी, मेरा प्रयास सार्थक हुआ | आपका हार्दिक आभार भाई श्री विशाल चर्चित जी
बहुत सुंदर रचना है आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी.... किस कदर मन के भाव कागज़ पर उतरकर एक सुंदर रचना में परिवर्तित होते हैं, यह बखूबी बताया आपने....और सचमुच रचना वही अच्छी होती है जो अपने आप दिल से निकले..... केवल छंदों का ज्ञान होने से ही रचना लिख तो सकते हैं लेकिन उसमें वह मिठास नहीं लाई जा सकती जो दिल से स्वत: निकले शब्दों में होती है.... इस सार्थक रचना के लिए बहुत बहुत बधाई.....
बोले- डटें रहो,
प्रयास आपका
रंग ला रहा है |............................ बधाई आदरणीय बधाई
आदरणीय लक्ष्मण जी , बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति // बहुत बहुत बधाई///सादर
आपने एक कवि द्वारा रचना लिखे जाने तक की तमाम यात्रा को अत्यन्त विस्तार एवं रोचक ढंग से बताया.....हार्दिक बधाई !!!!
मन के भाव अगर करीने से बांध जाए तो कविता स्वतः बन जाती है, और तब कोई विद्वजन पीठ थपथपाकर
संबल प्रदान करता है तो आगे का मार्ग प्रशस्त हो जाता है | यही आपने भी किया है भाई श्री राजेश म्रदु जी |
आपका हार्दिक आभार
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