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ग़ज़ल : सत्य मेरा बोलना ही ऐब है

बह्र : रमल मुसद्दस महजूफ

2 1  2 2  2 1  2 2  2 1 2


तंग बेहद हाथ खाली जेब है,
सत्य मेरा बोलना ही एब है,

पाँव नंगे वस्त्र तन पे हैं फटे,
वक्त की कैसी अजब अवरेब है,
( अवरेब = चाल )

जख्म की जंजीर ने बांधा मुझे,
दर्द का हासिल मुझे तंजेब है,
( तंजेब = अचकन, लम्बा पहनावा )

जुर्म धोखा देश में जबसे बढ़ा,
साँस भी लेने में अब आसेब है,
( आसेब = कष्ट )

भेषभूषा मान मर्यादा ख़तम,
संस्कारों की गिरी पाजेब है....

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by शकील समर on November 6, 2013 at 4:31pm

//जुर्म धोखा देश में जबसे बढ़ा,
साँस भी लेने में अब आसेब है,// वाह वाह क्या बात है।
इस खूबसूरत गजल के लिए दिली दाद कुबूलें।

बस एक जिज्ञासा है। आपने मतले में जेब और ऐब को काफिये में बांधा है। क्या यह उचित है? क्योंकि हर्फ—ए—रवी से पहले स्वर का विरोध हो रहा है। कृप्या स्पष्ट करें।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 6, 2013 at 1:58pm

//पाँव नंगे वस्त्र तन पे हैं फटे,
वक्त की कैसी अजब अवरेब है,

जख्म की जंजीर ने बांधा मुझे, 
दर्द का हासिल मुझे तंजेब है, // भाई अरुण जी ग़ज़ल पे आपने निस्संदेह मेहनत तो किया है अच्छे अशआर हुये हैं.


कुछ जगह मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा मक्ते में आपने जो शब्द इस्तेमाल किया है "खतम" इसका प्रयोग आपने "समाप्त" के अर्थ में किया है तो एक बार गुरूजनों से सलाह ले लें क्यूँकि सही शब्द "खत्म" है हम "खतम" कई दफे कहते ज़रूर हैं लेकिन यह मान्य है या नही ये दावे के साथ नही बोल सकताl 

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