बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२
सूखते नल के आँसू टपकने लगे
देख छागल के आँसू टपकने लगे
भूख से चूक पत्थर गिरे याँ वहाँ
देखकर फल के आँसू टपकने लगे
था हवा की नज़र में तो बरसा नहीं
किंतु बादल के आँसू टपकने लगे
आइने ने कहा कुछ नहीं इसलिए
रात काजल के आँसू टपकने लगे
घास कुहरे से शब भर निहत्थे लड़ी
देख जंगल के आँसू टपकने लगे
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , बहुत कठिन रदीफ लिया है आपने , सुन्दर गज़ल के लिये बधाई !!!! और काफिया , रदीफ को सफलता से निबाहने के लिये अलग से ढेरों दाद !!!!!
अच्छी गजल के लिये बधायी हो धर्मेन्द्र जी आपको
अच्छी ग़ज़ल लिखी है धर्मेन्द्र जी बधाई आपको
aapne bhi aisee gazal jo kahee
meri aankho se aanso tapakne lage
sookhe nal me bhi aansoo agar aa gaye
to gazal ke bhi aansoo tapaskne lage
bhaijan thora aur jor lagaiye tab maja aayga meri shubhkamnayein
आ0 धर्मेंद्र सिंह जी खूबसूरत गजल के लिए आपको हार्दिक बधाई ।
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