!!! मनमोहन रूप सॅंवार रहे !!!
दुर्मिल सवैया- आठ सगण
मनमोहन रूप सॅंवार रहे, छवि देख रहे जमुना जल में।
सब ग्वाल कमाल धमाल करें, झट कूद पड़े जमुना जल में।।
अधरों पर ज्ञान भरी मुरली, रस धार बहे जमुना जल में।
गउ-ग्वालिन डूब गयीं रस में, तन तैर रहे जमुना जल में।।
के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित
Comment
केवल भाईजी, यही तो मेरा कहना है कि ऐसे में जबकि आपका प्रयास रंग नहीं ला पाया था, आपने आधी-अधूरी रचना को पटल पर क्यों रखा ? कुछ और मेहनत किये होते. यही तो मेरा कहना है.
वैसे आंचलिकता की महक से भरा शब्द ’बहे’ कोई ग़लत नहीं था.
शुभ-शुभ
आ0 सौरभ सर जी, वाह क्या बात है! आपने बिलकुल सही कहा.......यह दोनों बात ही मेरे संज्ञान में थी। 'सॅंवार' और 'बही'.........'बही' के स्थान पर चार शब्द मेरे पास थे 1-ठगे....2-बहे.....3-जगे... और 4-बसे......। स्वर में 'बही' शब्द उपयोगी लगा....और आगे बढ़ गया। आपके दायित्व निर्वहन के लिए आपको शत-शत नमन! इन्ही विशेषताओ से ही ओ0बी0ओ0 की सार्थकता और उत्कृष्टता बनी हुई है। आपके स्नेह, मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन हेतु आपका बहुत-बहुत हार्दिक आभार। सादर,
आ0 सत्य नारायण भाई जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,
आ0 विजय भाई जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,
आ0 नैथानी भाई जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,
आ0 शिज्जू भाई जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर,
मन को मुग्ध करती इस प्रस्तुति हेतु आपको हार्दिक बधाई. आदरनीय
दुर्मिल सवैया पर उचित प्रयास हुआ है, भाई केवल प्रसादजी.
वैसे, मंच के प्रारूप के अनुरूप अपनी समझ को साझा करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ.
आदरणीय गोपाल नारायण जी के कहे से मैं शत्-प्रतिशत् सहमत हूँ कि संवार के सं को गुरु की तरह लिया जाता है. लेकिन सही शब्द संवार है ही नहीं बल्कि वह सँवार है.
आप अन्यान्य स्थानों या कतिपय पत्रिकाओं में फिलहाल प्रचलित हुई अक्षरियों के प्रति अन्यथा भावुक न बनें जहाँ चन्द्रविन्दु के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया जाने लगा है. ऐसी जगहों पर हूँ को भी हूं लिखा जाने लगा है.
ऐसी कोई चलन हर तरह से नकारी जानी चाहिये.
दूसरे, शिल्प के लिहाज से सवैया के तीसरे पद का तुकान्त सही नहीं है.
यह आपको तभी समझ में आ गया होगा, जब आप रचना कर्म कर रहे थे. लेकिन अन्य कोई उपाय बनता न देख आपने चलता है कह कर इस पद को अपना लिया होगा.
भाईजी, यही चलता है वाला तर्क आपकी रचनाओं को वह स्तर प्राप्त करने नहीं देता जिसके प्रति आप अत्यंत आग्रही दीखते हैं.
आपका रचनाकर्म वस्तुतः प्रयास है और प्रयास के कर्म में, भाईजी, अपने प्रति निरंकुश क्यों नहीं बनते आप ?
इस प्रस्तुति पर जिन पाठकों की सहमति आयी है उनमें से अधिकांश रचनाकर्म के धुरंधर हैं, लेकिन आपसे उन्होंने सुझाव का आदान-प्रदान नहीं किया है. यह आपके लिए भी सचेत हो जाने का इशारा है, भाईजी.
बहरहाल, रचनाकर्म के लिए बधाई और शुभकामनाएँ
शुभ-शुभ
बहुत सुन्दर सवैया भाईजी |
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online