भोले मन की भोली पतियाँ
लिख लिख बीतीं हाये रतियाँ
अनदेखे उस प्रेम पृष्ठ को
लगता है तुम नहीं पढ़ोगे
सच लगता है!
बिन सोयीं हैं जितनीं रातें
बिन बोलीं उतनी ही बातें
अगर सुनाऊँ तो लगता है
तुम मेरा परिहास करोगे
सच लगता है!
रहा विरह का समय सुलगता
पात हिया का रहा झुलसता
तन के तुम अति कोमल हो प्रिय
नहीं वेदना सह पाओगे
सच लगता है!
संशोधित
मौलिक व अप्रकाशित
९॰११॰२००० - पुरानी डायरी से
Comments are closed for this blog post
आदरणीया गीतिका जी,
क्षमा मांगने की आवश्यकता नहीं! प्रकरण मेरी तरफ से समाप्त! मेरा उद्देश्य सिर्फ चर्चा था न कि विरोध!
बहरहाल, मेरे कहे को जो रूप दिया गया उसके लिए सभी वरिष्ठों का आभार! एक बार फिर अब तक इस मंच पर की गयी सभी गलतियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ!
सादर!
फरवरी में जब इस मंच से जुड़ने का अवसर मिला तब लगा कि यह वही मंच है जिसकी मुझे तलाश थी. तब से आज तक इस मंच ने मुझे बहुत कुछ दिया, बहुत सिखाया. उन सबके लिए इस मंच का आभारी हूँ, रहूँगा! मेरी रचनाओं पर बहुत तीखी टिप्पणियाँ मिलीं, लेकिन उन टिप्पणियों को मैंने नकारात्मकता से नहीं लिया, हर टिप्पणी को आभार के साथ स्वीकारा क्योंकि उन्हीं से मुझे सीखने को मिला. इस मंच पर इतने दिनों के सफ़र में मैंने अपनी किसी टिप्पणी में किसी पर व्यक्तिगत प्रहार नहीं किया, न मेरा इरादा कभी गलत रहा, न मैंने किसी को चोट पहुँचाने के उद्देश्य से कभी कुछ कहा!
इधर के घटनाक्रम और उन पर इस मंच के वरिष्ठ जनों की प्रतिक्रिया से दिल बहुत दुखा! आदरणीय बागी जी की रचना पर जिस तरह से अतुकांत विधा को मखौल का विषय बनाया गया, वह मेरे लिए हतप्रभ करने वाला था. मजेदार यह कि उनमें वे लोग भी शामिल थे जो अतुकांत कविताओं के संग्रह ‘परों को खोलते हुए’ में शामिल हैं और वे भी जो शामिल न हो पाने के कारण नाराज़. ये कैसा दोगलापन साहित्य में चल निकला? किताब में छपना है तो विधा अच्छी, नहीं तो दैनन्दिनी. मेरा सीधा प्रश्न है कि कंकड़ फैंकने पर जिस पर गिरे क्या वो अतुकांत का ही कवि होगा? क्या क्लिष्ट शब्द केवल अतुकांत में ही प्रयोग होते हैं? इस रचना पर मेरी पहली टिप्पणी का उद्देश्य मात्र यह जानना था कि क्या सिर्फ अतुकांत में ही निजी सुख-दुःख, सर्दी-जुकाम की बातें होती हैं. अन्य विधाओं में किसी रोग की कोई चर्चा नहीं होती. मैंने तो कुछ लोगों को अपने पारिवारिक झगड़ों को गीत आदि का विषय बनाते इसी मंच पर देखा है.
मेरे प्रश्न का सीधे या टेड़े कैसे भी उत्तर दिया जा सकता था, लेकिन बात आ पहुँची रचना को हटाने पर, तभी ‘शायद’ प्रबंधन को कहना पड़ा कि मैंने अपनी टिपण्णी में कसैली भाषा का प्रयोग किया है. क्या मेरी भाषा कसैली थी? जैसा कि कुछ वरिष्ठ लोगों ने कहा कि कार्यकारिणी का सदस्य होने के नाते मुझे सतर्कता बरतनी चाहिए थी, या फिर मुँह ही बंद रखना चाहिए था, इसलिए भी बंद रखना चाहिए था क्योंकि अतुकांत लिखने वाले किसी अन्य वरिष्ठ ने तो कोई आपत्ति की नहीं थी. सच भी है, मेरी हैसियत अभी ये नहीं कि कोई मुद्दा उठा सकूँ. ये एक अजीब सा अनुभव हुआ कि एक साहित्यिक मंच पर मेरी प्रतिक्रिया/प्रश्न को विरोध का रूप दे दिया गया, और अब भी उसे किसी अलग रंग के चश्मे से देखा जा रहा है. क्या मेरे प्रश्न इतने पर्सनल थे कि उन पर चर्चा न की जा सके?
साहित्य किसी की बपौती नहीं, जाहिर है मेरी भी नहीं, कि किसी से अनुमति लेकर उस पर बोला जाए, और न ही जमीन पर पड़ी कोई चीज़ है कि कोई भी उसे रौंदकर चला जाए. आप यदि किसी विधा पर कुछ कहते हैं तो उसके प्रतिकार के लिए आपको तैयार रहना चाहिए. किसी भी मुद्दे पर प्रश्न करने का सबको अधिकार है! मुझे वो भी दिन याद हैं जब इस मंच पर की गयी मेरी टिप्पणी का विरोध फेसबुक पर किया गया और यहाँ के वरिष्ठ जन जो वहाँ बहुत समय देते हैं, मूक दर्शक बने रहे. तब विरोध के स्वर क्यों नहीं उठे? तब पर्सनल न होने की शिक्षा क्यों नहीं दी गयी? इस मंच पर भी मेरी टिप्पणी के जवाब में बहुत तीखी प्रतिक्रियाएं मुझे देखने को मिलीं, लेकिन तब भी वरिष्ठों ने माहौल का आनंद लेने के सिवा कुछ नहीं किया. जब नाम देखकर प्रतिक्रिया की जायेगी, तो ऐसा ही होगा. इस मंच के अब तक के माहौल के कारण जो चीज़ें नागवार गुजरती थीं, उन पर प्रतिक्रिया कर ही देता था, लेकिन शायद मैं ये भाँप नहीं पाया कि इस मंच की प्रवृत्तियाँ बदलने लगी हैं. शायद यही मेरी गलती भी है, फेसबुकिया स्टाइल में वाह-वाह करके निकल जाना चाहिए था, जैसा यहाँ के माननीय करते हैं. कोई नया रचनाकार हत्थे चढ़ जाए, तो सीख दे दी जाए, बाकी सब वाह, वाह! क्या यही ओबीओ है?
मंतव्य और इरादों पर भी अब उँगली उठनी शुरू हो गयी! लोगों ने मेरे निर्णय को भावावेश में लिया गया निर्णय, मेरे शब्दों को असहनीय कहना शुरू कर दिया. क्या मैंने कोई निर्णय लिया भी था? क्या मैंने रचना वापस लेने के लिए कहा था? मेरे द्वारा टिप्पणी को कोट किये जाने के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह है! मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि मेरे लिए यह आवश्यक था क्योंकि मेरे कहे को अन्यथा लिया गया. उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट था कि टिप्पणी के शब्दों और उसके मंतव्य पर गौर किया जाए. वरिष्ठों की प्रतिक्रिया से आश्चर्य चकित हूँ!
बहरहाल, अभी तक का विरोध सर-माथे. इस मंच पर मेरी टिप्पणियों में लोगों को आक्रोश की बू आती है, शब्द असहनीय लगते हैं, कार्य औचित्यहीन लगते हैं, इसीलिए मैं यही बेहतर समझता हूँ कि आगे ऐसा कोई काम न करूँ जिससे किसी को कोई कष्ट हो. अब तक मेरे कारण जो भी कष्ट आप सबको हुए हैं, उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ!
सादर!
ये नवगीत है ?????
क्या गीतिकाजी ? उत्साह ठीक है लेकिन व्यामोह उचित नहीं. विशेषकर विधाओं को लेकर ..
शुभेच्छाएँ
ब्रिजेश जी आपकी प्रतिक्रिया पढ़ी उसके बाद आपकी कोट की हुई गीतिका जी की प्रतिक्रिया पढ़ी (हालांकि उस प्रतिक्रिया को यहाँ उद्दृत करने का औचित्य समझ नहीं आया )मुझे कही भी नहीं लगा की गीतिका जी ने वो प्रतिक्रिया किसी व्यक्ति विशेष के लिए की थी आप उसको इतना पर्सनल क्यों ले रहे हैं समझ नहीं आ रहा अतुकांत विधा में एक आप ही नहीं और लोग भी इस मंच पर लिखते हैं आपकी इस प्रतिक्रिया में किसी आक्रोश की बू क्यों आ रही है आश्चर्य चकित हूँ इतने गंभीर समझदार रचनाकार से ये उम्मीद बिलकुल नहीं थी रही बात कार्यकारिणी के उत्तरदायित्व को छोड़ने की ---ये शब्द भी असहनीय लग रहे हैं
इस रचना में भाव कोमल हैं और अच्छे लगे।
बधाई, आदरणीया गीतिका जी।
पवित्र मंच व सममानीय सदस्य!
मेरे टिप्पणी करने से ही यह विवाद उपजा है, मै इसके लिए बहुत शर्मिंदा हूँ और क्षमा प्रार्थी हूँ|
मै कहना चाहती हूँ कि यह रचना अतुकांत न होकर तुकांत नवगीत है| मै खुद भी अतुकांत लिखने से डरती हूँ क्यूकी मुझे अतुकांत नही आता, और अगर प्रस्तुति भी करती हूँ तो वरिष्ठ रचनाकारों के मार्गदर्शन मे ही|
// मैं आहत हूँ!अभी तक मेरी पहचान, मेरा अस्तित्व अतुकांत ही रहा है लेकिन मुझे पता चला कि यह विधा तो दैनन्दिनी के समान है. इसका तो साहित्य क्षेत्र में, विद्व और प्रतिभावान साहित्यकारों की दृष्टि में कोई मोल नहीं.//
आदरणीय बृजेश भाई जी! आप आहत हों, मेरा ये उद्देश्य नही है, न ही मैंने आपको या किसी भी सदस्य के अस्तित्व पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया| मैंने केवल उन रचनाओ पर टिप्पणी कि है जो एक गद्य खंड कि तरह प्रस्तुत है| और आपके ही शब्दों मे कहिए तो
//सड़कछाप शब्दों में गद्य की पंक्तियों को ढोती रचना अतुकांत कविता नहीं होती.//
मै तो आपकी इसी प्रतिक्रिया के समर्थन मे हूँ|
आपको इसमे व्यक्तिगत होंने कि आवश्यकता नही है| यह विधा डायरी के समान नही अपितु इसे जिन लोगों ने डायरी के समान बना रखा है मैंने उनके प्रति कहा था आदरणीय!
मै खुद भी अवाक हूँ आप के ऐसे प्रतिउत्तर से|
आदरणीय वीनस भाई जी!
उक्त टिप्पणी मैंने उन रचनाओ के संदर्भ मे लिखी थी जो अतुकांत के नाम पर डायरी लिखते है| बुखार मे चार गोलियों मे से एक गोली को खाने मे रचना रचते है| मै फेसबुकिया रचनाओ कि बात कर रही हूँ| जिनको शायद खुद आप भी नही सहमत होंगे|
आ0 वीनस जी! मै आपकी आपत्ति का स्वागत करती हूँ और अपनी प्रतिक्रिया को वापस लेती हूँ| और भविष्य मे किसी भी रचना पर बहुत सोच समझ के उपस्थित होउंगी|
मेरे टिप्पणी करने से आदरणीय बृजेश भाई जी आहत है तो मै नतमस्तक होकर क्षमा चाहती हूँ, और अपनी टिप्पणी वापस लेती हूँ और विनती करती हूँ कि वे अपना दायित्व पूर्व की भांति निर्वाह करें|
सादर!!
आदरणीय बृजेशजी, आप जिस टिप्पणी का उल्लेख कर रहे हैं जहाँ तक मेरी समझ है वो किसी रचना या रचनाकार पर नही बल्कि अतुकांत के नाम पर कुछ भी लिखने वालों को कहा गया है, उसमे किसी की रचनाधर्मिता पर कुछ नही कहा गया है बल्कि ये सचेत किया गया है कि अतुकांत का भी शिल्प होता है कदाचित आपको कुछ गलतफहमी हो गई है,//
अनुरोध करता हूँ कि कार्यकारिणी सदस्य के दायित्व से मुझे मुक्त करने का कष्ट करें! //और ये निर्णँय आपने भावावेश में लिया,
सादर,
//वाह! बहुत सही तरीके से आपने अतुकांत लिखने वालों की क्लास ली है! कहते है कि जहाँ भीड़ मे एक पत्थर उछाल फेंको, और जिसे लगे वही कवि| और अब तो ये आलम है कि मुट्ठी भर कंकरियाँ भीड़ मे फेंक दो, सबको एक न एक लगेगी, सभी कवि| और इन कवियों ने तो कविताई को नुमाइश मे बिकने वाला हर माल २१ रूपय का समझ रखा है| अपने निजी जीवन से रोज की खुन्नस के लिए श्रोता खोजते हैं| बुखार हुआ तो कविता, उधार वापस नही मिला तो कविता, सरसता और उद्देश्यगत काव्य को ताक रख अतुकांत कविता के पत्र को अपनी दैनंदिनी बना रखा है इन महाकवि ने और बिना काम की रोचकता उत्पन्न करने की कोशिशें करते हैं|
खैर कहते भी है कि ये कविताओं कि उम्र भी जल्दी चुक जाती है| आपको बधाई आपने साहित्य के संदर्भ मे दिलेरी से यह विषय चुना!//
आदरणीया गीतिका वेदिका ने अपना ये विचार जहाँ भी प्रस्तुत किया हो, इसका लहजा कदापि उचित नहीं है और इस पर मैं कड़ी आपत्ति दर्ज करता हूँ| किसी की रचनाधर्मिता का ऐसा मजाक !!! ये तो हद है
अगर हम किसी मंच पर किसी अन्य की रचना की लाल रंगी प्रस्तुति को गलत कहते हैं और इसके बाद किसी मंच पर अपनी रचना लाल रंग में पेश कर देते हैं तो अपने आप एक विरोधाभास खड़ा हो जाता है, रचनाकार की रचनाधर्मिता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है
विचारधारा पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाता है
स्पष्ट हो जाता है की पिछली बहस में बस सामने वाले का विरोध करने के लिए लाल रंग का विरोध किया गया था,अगर हमारी निश्चित विचारधारा न हो तो ये जल्द ही स्पष्ट हो जाता है ...
इसलिए यहाँ पर किसी अन्य जगह का संवाद प्रस्तुत करके स्पष्ट होने की कोशिश करने में मुझे कोई गलती नहीं दिखती
हाँ एक बड़ा प्रश्न आदरणीया गीतिका विदिका के लिए खड़ा हो गया है जिसका उत्तर उनको देना ही चाहिए ... केवल इसलिए नहीं की इस मंच पर बहस शुरू हो गयी है बल्कि इसलिए भी की लोगों को स्पष्ट तो हो की जिस विधा में आप खुद रचनाधर्म निभा रही हैं उस पर किसी और पर ऐसी अशोभन टिप्पणी देने का क्या औचित्य था ? या फिर आपकी रचनाधर्मिता इतनी ऊँची हो गयी है कि अन्य सभी बौने दिखने लगे ???
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++
आदरणीय ब्रिजेश जी से निवेदन है की रचना के प्रति थोडा सरस हो जाएँ तो कुछ बातें स्पष्ट हो जायेंगी
रहा विरह का समय सुलगता............समय सुलगता है?
विरह की चांदनी रात भी जलाती है .. अब प्रश्न हो कि चाँद कैसे जलाता है ? जैसे आत्मा को दुःख पहुँच सकता है, आत्मा तृप्त हो सकती है, दिल खुश हो सकता है, मन मयूर हो कर नाच सकता है मुझे लगता है वैसे ही समय भी सुलग सकता है
//पात हिया का रहा झुलसता
तन के तुम अति कोमल हो प्रिय
नहीं वेदना सह पाओगे....................हिय के झुलसने की वेदना तन क्यों सहेगा?//
जड़ दिल टूटता है तो दुःख शरीर भी झेलता है, नहीं तो कृष्ण के चले जाने पर गोपियाँ अधमरी न हो जातीं ...
मैंने टिप्पणियां सदैव सोच-समझकर ही की हैं! मेरी टिप्पणी से किसी को दुःख पहुँचे, यह मेरा उद्देश्य कभी नहीं रहा. न तो मेरा उद्देश्य रचना विशेष को वापस कराना था, न ही उसे हटवाना. न ही मैंने किसी प्रकार की कसैली भाषा का प्रयोग किया है! मैंने सिर्फ उस टिप्पणी को उदघृत किया है, जो आदरणीया ने अतुकांत विधा को लक्ष्यकर किसी रचना विशेष पर लिखी थी. मेरी यह जिज्ञासा थी कि क्या वास्तव में अतुकांत विधा में दोष है? मेरा आग्रह है कि उस टिप्पणी पर भी गौर फरमाया जाये. किसी विधा विशेष पर इस तरह की टिप्पणी क्या उचित है? क्या कोई चर्चा किसी रचना विशेष पर ही खत्म हो जाती है? क्या उस चर्चा को कहीं और ले जाना वास्तव में दोष है? क्या मेरी टिप्पणी इतनी गलत थी कि आपत्ति का कारण बने?
अतुकांत मेरी प्रिय विधा है और उस विधा के लिए किसी अनुचित टिप्पणी को हज़म कर पाना मेरे लिए कठिन हो रहा है.
जहाँ तक वरिष्ठता का प्रश्न है, आदरणीया मुझसे पुरानी और वरिष्ठ सदस्या हैं इस मंच की, और कोई भी वरिष्ठ सदस्य किसी विधा विशेष को लक्ष्य करके ऐसी टिप्पणी करे, ये मुझे भी आश्चर्यचकित करता है! मुझे यह भी आश्चर्य में डालता है कि उस टिप्पणी पर किसी वरिष्ठ ने आपत्ति नहीं की. किसी ने आदरणीया को इस तरह की टिप्पणी से बचने की सलाह नहीं दी.
सुलभ सन्दर्भ हेतु मैं आदरणीया की उस टिप्पणी को यहाँ कोट कर रहा हूँ-
//वाह! बहुत सही तरीके से आपने अतुकांत लिखने वालों की क्लास ली है! कहते है कि जहाँ भीड़ मे एक पत्थर उछाल फेंको, और जिसे लगे वही कवि| और अब तो ये आलम है कि मुट्ठी भर कंकरियाँ भीड़ मे फेंक दो, सबको एक न एक लगेगी, सभी कवि| और इन कवियों ने तो कविताई को नुमाइश मे बिकने वाला हर माल २१ रूपय का समझ रखा है| अपने निजी जीवन से रोज की खुन्नस के लिए श्रोता खोजते हैं| बुखार हुआ तो कविता, उधार वापस नही मिला तो कविता, सरसता और उद्देश्यगत काव्य को ताक रख अतुकांत कविता के पत्र को अपनी दैनंदिनी बना रखा है इन महाकवि ने और बिना काम की रोचकता उत्पन्न करने की कोशिशें करते हैं|
खैर कहते भी है कि ये कविताओं कि उम्र भी जल्दी चुक जाती है| आपको बधाई आपने साहित्य के संदर्भ मे दिलेरी से यह विषय चुना!//
मैं आहत हूँ!
अभी तक मेरी पहचान, मेरा अस्तित्व अतुकांत ही रहा है लेकिन मुझे पता चला कि यह विधा तो दैनन्दिनी के समान है. इसका तो साहित्य क्षेत्र में, विद्व और प्रतिभावान साहित्यकारों की दृष्टि में कोई मोल नहीं.
फिर मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ?
मेरी टिप्पणी से सबको कष्ट हुआ, मैं क्षमा प्रार्थी हूँ! अपनी पूर्व की टिप्पणी मैं वापस लेता हूँ और अनुरोध करता हूँ कि कार्यकारिणी सदस्य के दायित्व से मुझे मुक्त करने का कष्ट करें!
सादर!
रचना पसंद न आए या वो अस्तरीय हो तो अपनी बात खुलकर लेखक तक पहुंचाना और कमियों से अवगत करवाना हर सच्चे साहित्य प्रेमी का परम कर्त्तव्य है. यानि कि बात उसी रचना विशेष या उसके शिल्प/शैली के इर्द गिर्द ही केंद्रित हो. लेकिन किसी रचना/लेखक की आलोचना सिर्फ इस आधार पर की जाये कि लेखक ने कभी कहीं और किसी जगह क्या कहा था, कहाँ तक उचित है ? न न न न !! भाई बृजेश जी यह कैसी टिप्प्णी है ? मुझे इसको पढ़कर बेहद निराशा हुई है. ऐसी कसैली भाषा का प्रयोग बहुत ही सोच समझ कर और सतर्कतापूर्ण करना चाहिए, विशेषकर आप जैसे वरिष्ठ सदस्य द्वारा, जोकि इस मंच की कार्यकारिणी का हिस्सा भी हैं.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |