भोले मन की भोली पतियाँ
लिख लिख बीतीं हाये रतियाँ
अनदेखे उस प्रेम पृष्ठ को
लगता है तुम नहीं पढ़ोगे
सच लगता है!
बिन सोयीं हैं जितनीं रातें
बिन बोलीं उतनी ही बातें
अगर सुनाऊँ तो लगता है
तुम मेरा परिहास करोगे
सच लगता है!
रहा विरह का समय सुलगता
पात हिया का रहा झुलसता
तन के तुम अति कोमल हो प्रिय
नहीं वेदना सह पाओगे
सच लगता है!
संशोधित
मौलिक व अप्रकाशित
९॰११॰२००० - पुरानी डायरी से
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क्या बात है ............ये तो बहुत पुरानी होने के बाद भी नई नई सी लगती है
कमाल है
इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए बधाई हो दीदी
अनदेखे उस प्रेम पृष्ठ को
लगता है कि नहीं पढ़ोगे
सच लगता है!----वाह सच में भावों की उधेड़बुन, हो भी सकता है नहीं भी विश्वास भी है शक भी है ...मुझे इस प्रस्तुति का कहन सबसे ज्यादा पसंद आया बहुत ही सुन्दर वाह्ह्ह्हह बधाई प्रिय गीतिका
आभार आ० चंद्र शेखर जी!
भावों का सुघड़ उद्बोधन। बधाई!!!
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