बह्र : २१२२ १२१२ २२
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याँ जो बंदे ज़हीन होते हैं
क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं
बीतना चाहते हैं कुछ लम्हे
और हम हैं घड़ी न होते हैं
प्रेम के वो न टूटते धागे
जिनके रेशे महीन होते हैं
वन में उगने से, वन में रहने से
पेड़ खुद जंगली न होते हैं
उनको जिस दिन मैं देख लेता हूँ
रात सपने हसीन होते हैं
खट्टे मीठे घुलें कई लम्हे
यूँ नयन शर्बती न होते हैं
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरईय धर्मेन्द भाई , बहुत खूबसूरती से आपने क़ाफिया का निर्वहन किया है , उम्दा गज़ल के लिये आपको ढेरों बधाई !!!!!
वाह !!! बहुत ही सुंदर गजल हुई है , आ० धर्मेंद्र जी बहुत बधाई ।
आपकी ग़ज़ल खट्टी मीठी ग़ज़ल है i बहुतेरे स्वाद है i स्नेह i
वाह क्या कहने आदरणीय धर्मेन्द्र जी बहुत ही उम्दा ग़ज़ल दाद कुबूल फरमाएं.
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