कौन जाने
सिर्फ मैं हूँ,
या कि कोई और भी है,
जो उलझता है,
तड़पता है,
झुलसता है,
कभी फिर
बुझ भी जाता है...
जो उलझता है,
कि जैसे
ज़िन्दगी के क़ायदे-क़ानून
बनकर साजिशों के तार
चारों ओर से घेरा बनाकर
हर नये सपने
हर एक ख़्वाहिश
के सीने में चुभाकर
रवायतों की सलाईयाँ,
बुनते और बिछाते जा रहे हों
मकड़ियों के जाल...
जो तड़पता है,
उसी मानिन्द
जैसे सीपियों में क़ैद नन्हीं बूँद कोई
हो तड़पती तैरने को
पंख फैलाकर समन्दर में;
बड़े ही खूबसूरत
चमचमाते नाम देकर,
सिसकियाँ उस बूँद की
मोती बनाकर,
हैं सजाते लोग
कितने शौक से बाज़ार...
जो झुलसता है,
तजुर्बों की अंगीठी में पड़े
इक नर्म पत्ते सा,
दबा है जो
कई वज़नी
नसीहतों के कोयलों के तले,
बहुत कोशिश करे भी तो
ज़रा सा हिल ही पाता है,
सुलगता है
अंगीठी की
हर एक आँच के साथ...
कौन जाने
सिर्फ मैं हूँ,
या कि कोई और भी है...
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
अजय जी
उलझना ,तड़पना और झुलसना इन
तीन आयामों में बंधी आपकी कविता
अति सुन्दर है i
सुन्दर प्रस्तुति बहुत बहुत बधाई आपको ,,,,,सादर
आदरणीय अजय भाई , सारगर्भित रचना के लिये बधाई !!!!
सुलगता है
अंगीठी की
हर एक आँच के साथ... कौन जाने
सिर्फ मैं हूँ,
या कि कोई और भी है.. ---------- लाजवाब !!!!
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