भाव की हर बांसुरी में
भर गया है कौन पारा ?
देखता हूं
दर-बदर जब
सांझ की
उस धूप को
कुछ मचलती
कामना हित
हेय घोषित
रूप को
सोचता हूं क्या नहीं था
वह इन्हीं का चांद-तारा ?
बौखती इन
पीढि़यों के
इस घुटे
संसार पर
मोद करता
नामवर वह
कौन अपनी
हार पर
शील शारद के अरों को
ऐंठती यह कौन धारा ?
इक जरा सी
आह सुन जो
छूटता
ले प्राण था
तू ही जिनकी
जिंदगी था
तू ही जिनकी
जान था
चाहते थे वे रथी कब
सारी धरती व्योम सारा ?
देवता वो
कौन है जो
हर सके
इस पाप को
गुणसूत्र की
वेणी पकड़ ये
लीलते बस
'आप' को
स्वार्थ की ताबीज ताने
किसने है ये मंत्र मारा ?
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
अति गहरे भाव लिए अद्भुत रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय राजेश 'मृदु' जी
राजेश जी
शब्द शिल्प के चटकीले रंगों से सजे इस गीत पर
आपको अनेक धन्यवाद i कही- कही मै आपकी
कल्पना को पकड़ नहीं सका वह मेरा अज्ञान है i
पर आपका गीत अच्छा है i निसंदेह i
बहुत बढ़िया आदरणीय राजेश मृदु जी बेहतरीन रचना है दाद कुबूल करें
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय भाई जी .. हार्दिक बधाई आपको ।।।। सादर
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