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***इक पल मैं हूँ..........***

इक पल मैं हूँ..........


इक पल मैं हूँ इक पल है तू
इक पल का सब खेला है
इक पल है प्रभात ये जीवन
इक पल सांझ की बेला है
इक पल मैं हूँ..........

ये काया तो बस छाया है
इससे नेह लगाना क्या
पूजा इसकी क्या करनी
ये मिट्टी का ढेला है
इक पल मैं हूँ..........

प्रश्न उत्तर के जाल में उलझा
मानव मन अलबेला है
क्षण भंगुर इस जिस्म में लगता
साँसों का हर पल मेला है
इक पल मैं हूँ ………


अंत पंथ का अविदित है
है अपरिचित हर पल यहाँ
अमर नहीं कोई इस जग में
ये जग चला-चली का मेला है
इक पल मैं हूँ ………


सुशील सरना


मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on December 3, 2013 at 7:39pm

aa.Giriraj Bhandaari jee rachna par aapkee snehil prashansa ka haardik aabhaar

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 3, 2013 at 5:38pm

सरना जी

पल ही का सब खेल है i  कबीर बाबा कह ही गये  है कि पल में  परलय  होइगी बहुरि करोगे कब्ब i

आपकी  कविता में पल के बहुवर्णी चित्र है  i आपको बधाई i

Comment by coontee mukerji on December 3, 2013 at 4:45pm

प्रश्न उत्तर के जाल में उलझा
मानव मन अलबेला है
क्षण भंगुर इस जिस्म में लगता
साँसों का हर पल मेला है
इक पल मैं हूँ ………...........बहुत सुंदर बात कही है आपने सुशील जी हार्दिक बधाई.

सादर

कुंती.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 3, 2013 at 3:37pm

आदरणीय सुशील सरना जी, नश्वर जीवन की सच्चाई को आपने बहुत खूबसूरती से बयान किया है !!!! रचना के लिये आपको बधाई !!!!

कृपया ध्यान दे...

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