बुजुर्ग को सुनाते हैं …..
हाँ
मानता हूँ
मेरा जिस्म धीरे धीरे
अस्त होते सूरज की तरह
अपना अस्तित्व खोने लगा है
मेरी आँखों की रोशनी भी
धीरे धीरे कम हो रही है
अब कंपकपाते हाथों में
चाय का कप भी थरथराता है
जिनको मैं अपने कंधों पर
उठा कर सबसे मिलवाने में
फक्र महसूस करता था
वही अब मुझे किसी से मिलवाने में
परहेज़ करते हैं
शायद मैं बुजुर्ग
नहीं नहीं बूढा बुजुर्ग हो गया हूँ
मैं अब वक्त बेवक्त की चीज़ हो गया हूँ
परिवार का एक ऐसा मोहरा हूँ
जिसे जब भी जरूरत पडी
शादी,त्यौहार में
बढ़िया लिबास में सजा कर
मेहमानों के सामने रख दिया
फिर अवसर निकलते ही
पुराने अखबार की तरह
घर के किसी कौने में
बिठा दिया
कांपते हाथों से अगर
सब्जी कमीज़ पर गिर पड़े
बावजूद लाख कोशिशों के अगर
अपनी लघु शंका नियंत्रित न हो पाए
बात करते करते
थूक मुंह से कपड़ों पे गिरने लगे
किसी की बात सुन पाने में असमर्थता हो
बहुत शोर होता है घर में
घर के अपनों से बैगानों में
सब को अपने दर्द नज़र आते हैं
मगर इन हाथों में कसमसाते
अपनों के रिश्तों को
एक बजुर्ग की आँख से
झर झर बहते यादों के
झरने नज़र नहीं आते
सूखी टहनियों से आती
सूर्य की रश्मियाँ उन्हें अब खलती हैं
मगर इस बजुर्ग वृक्ष की छाया में
खेले बचपन के पल उन्हें याद नहीं आते
बहुत रोते हैं पछताते हैं
जब घर की रौनक ये बुजुर्ग
दुनिया से चले जाते हैं
चलते हैं जब ज़िन्दगी तपती राहों पर
तब सूखी टहनियों का
मोल समझ जाते हैं
फिर अपना दर्द
फ्रेम में जड़े
बुजुर्ग को सुनाते हैं, बुजुर्ग को सुनाते हैं ……
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
aadrneey Saurabh Pandey jee rachna par aapkee hr smeeksha men aik naya maargdarshan milta hai jo katu n hokr utsaah vardhak hota hai...rachna par aapkee snehil pratikriya ka main apne hridy tl aabhaar vyakt karta hoon....aasha karta hoon aapke maargadarshan yun hee milta rahega....haardik aabhaar
विषय प्रासंगिक है. कथ्य भावुक है. प्रयास सार्थक है परन्तु, प्रस्तुतीकरण अभी और समय मांग रहा था जिसे आपने यह मुहैया नहीं कराया. ऐसा प्रतीत होता है.
आपकी रचनाओं में शाब्दिक दुहराव-तिहराव आपकी एक शैली के रूप में सामने आया है. हालाँकि इससे पैदा हुई नाटकीयता रचनाओं की साहित्यिकता को कमतर करती हुई ही लगी है. आदरणीय, हो सकता है इस शैली को आपने अपनी गोष्ठियों या नशिस्तों में विकसित किया हो और श्रोताओं ने भरपूर दाद दिया हो लेकिन यह भी सत्य है कि प्रस्तुतियों की यह शैली मंचीय अधिक है.
समाज और परिवार के एक अन्योन्याश्रय अंग इन बुज़ुर्ग़ों और उनकी निरुपायता को विषय बना कर किया गया रचनाकर्म हृदय को वाकई छू गया. आपकी अन्य रचनाओं की प्रतीक्षा रह्गी, आदरणीय.
सादर
aa.Jitender Geet jee rachna par aapkee aatmeey pranshaatmak pratikriya ka haardik aabhaar
aa.Ram Shiromani Pathak jee rachna par aapkee snehil pratikriya ka haardik aabhaar
चलते हैं जब ज़िन्दगी तपती राहों पर
तब सूखी टहनियों का
मोल समझ जाते हैं
फिर अपना दर्द
फ्रेम में जड़े
बुजुर्ग को सुनाते हैं, बुजुर्ग को सुनाते हैं ……
सच! अंतिम पंक्तियों में आपने एक वास्तविक सत्य को चित्रित किया है, बधाई स्वीकारें आदरणीय शुशील जी
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय … सादर
aadrneey Sarita Bhatia jee rachna ko aapkee bhaavnaaon ne abhibhoot kr diya hai...aapke is sneh ka haardik aabhaar
निशब्द कर दिया आपने आदरणीय सुशील जी बिलकुल सच्ची व्यथा
aadrneey Brijesh Mishr jee rachna ke marm ko pahchaan aapne apne vichaaron se ise jis prakaar se alnkrit kiya hai usne rachna ko aik nayee oonchaaee prdaan kee hai....rachna pr apke dwara skratmak bhaavon ko abhivyakt karne ka main hridy se aapka aabhaaree hoon
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