कभी कभी
शब्दो के साथ
खेलने वाले ही
भूल जाते हैं
शब्दो की बाजीगरी
रात-दिन जो
रहते हैं शब्दो के बीच
कभी कभी उनको ही
नही मिलते शब्द
कहने को अपनी बात
जाहिर करने को
अपने जज्बात ....
ऐसा लगता है मानो
रूठ गया हो खुदा भी हमसे
उनकी ही तरह
जैसे वो रूठे हैं हमसे
सिर्फ कुछ
शब्दो के कारण …
एक ख्याल
बार-बार आता है
मन के छोटे से घर में
कि क्यों नही होता ऐसा
कि जज्बात को
बांधे ही न शब्दो में
भावनाओ का बदला
भावनाओ से ……
जैसे सुना है
एक डायलॉग कि
खून का बदला खून
क्या वैसे ही
नही हो सकता
कि शब्दो की
जरूरत ही न पड़े
तब जब अक्सर
पिघलना चाहती हो
भावनाए ……
तब जब दर्द
आंसुओ में
घुलना चाहता हो …
कोई किसी से
मिलना चाहता हो ....
क्यों पड़ती है
जरूरत शब्दो की
मोहबत के दरमियाँ
कुछ ऐसा क्यों नही होता
कि सुन ले एक दिल ही
दूसरे दिल की दास्ताँ
बिना शब्दो का जाल बुने
क्योंकि अक्सर
ऐसा होता है कि
शब्दो के चक्कर में
फंस जाती हैं भावनाये
ढक जाते हैं जज्बात
आधे झूठ और
आधे सच के नीचे
और तब रह जाता है
इंसान अपने ही शब्दो के
बीच में फंसकर
और तब समझ ही
नही पाता वो कि
आखिर सच क्या है
और झूठ क्या है
वो भावनाएं झूठी थी
या ये शब्द झूठे हैं
खेल शब्दो का
अजीब नही होता ???
स्वयं लिखित व अप्रकाशित रचना
सोनम सैनी
Comment
बढ़िया कविता है सोनम जी बधाई स्वीकारिए!
अच्छी कविता है सोनमजी बधाई आपको,
बहुत कुछ कह दिया अपने शब्दों में.सोनम जी.अच्छी रचना है.शुभकामनाएँ.
आदरणीया , लाजवाब रचना और सच्ची बात के लिये आपको बधाई !!!!! शब्दों से खेलने वाले अक्सर भावनाओं से भी खेल जाते हैं !!!!
सोनम जी
आपने बहुत अच्छा मुद्दा उठाया था i कभी कभी सरस्वती जी मानो हमसे रूठ जाती है i हम कलम घिसते है i पर नतीजा सिफर i
किन्तु आगे कविता की दिशा बदल गयी i यह जरूरी नहीं कि कविता बड़ी हो किन्तु विषय केन्द्रित अवश्य हो i आपकी कविता से आपकी प्रतिभा का पता चलता है i इसीलिये इतनी बात कही i आप अपना स्थान जरूर बनायेंगी i शुभ कामनाये i
खेल शब्दो का / अजीब नही होता ... बिल्कुल होता है आदरेया, सौ फीसदी सहमत हूं आपकी बात से, सादर
भावनाओं से ओतप्रोत रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें.... |
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