प्रेम करो प्रकृति द्वारा
सृजित जीवन से
तो ही जान सकोगे
जीवन के गर्भ में
छुपे अनगिनत रहस्यों को
प्रेम से खुलेंगे
जीवन के वो द्वार
जिनके लिए जन्मों जन्मों
से भटकते रहे तुम
जिनसे अब तक
अन्जान रहे तुम
प्रेम से होगी यह प्रकृति
तुम्हे समर्पित
खोल कर रख देगी
सारे राज तुम्हारे सामने
जैसे गिरा देती है प्रेयसी
परदे अपने प्रेमी के सामने ।
मौलिक व अप्रकाशित
नीरज 'प्रेम '
Comment
""""""""आजके अधिकांश लेखकों की यह विवशता है कि वे सामान्य और सहज शब्दों में लिखें. इसका मुख्य कारण उनका असहज अध्ययन और असमर्थ शब्द-संग्रह हैं. अतः आजके ऐसे अधिकांश नवहस्ताक्षरों की अधिकांश रचनाएँ सतही होती हैं. हम अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने के लिए शब्दों का ही सहारा लेंगे न ?""""""""""""""
ये बात आपकी बहुत ही विचारणीय है और इस बात मै बिलकुल इंकार नही करूंगा शायद मेरे जैसे लेखक अपने साथ ही
ये बेईमानी करते हों वो अपनी कविता को ठीक ठीक लय ना दे पाने और सही शब्दों के साथ उसे उचित न्याय ना दे पाने
की अपनी कमज़ोरी को अपनी खूबी सिद्ध करने के लिए प्रयास रत हों
कहते हैं जीवन भी एक छंद में होना चाहिए तभी सन्तुलित होता है सारे बुद्धपुरुषों के जीवन छंद युक्त ही हुआ करते थे
तभी तो वो साहित्य को भी इतने छंद दे पाये और उनकी कविताओं में छंद के दोष भी नही दिखाई देते ।
और बिलकुल भावनाओं को व्यक्त करने का प्राथमिक साधन शब्द ही है और जब शब्द समर्थ होंगे तभी हम अपनी भावनाओं को
ठीक ठीक व्यक्त कर सकेंगे और शब्दों की ठीक ठीक यात्रा करके ही हम अपने लिए मौन के द्वार भी खोल सकेंगे ।
सादर ।
अच्छा लगा भाई नीरजजी, कि आपने मेरे कहे को यथोचित सम्मान दिया.
मैं आपके कहे पर संवाद बनाने के क्रम में स्वयं को विन्दुवत रखना चाहूँगा. इसलिये वाक्य प्रति वाक्य पर मेरा निवेदन प्रस्तुत है --
//ज़रूर मै आपकी बातों का ध्यान रखूंगा //
हार्दिक धन्यवाद, भाईजी.
//पर मै जो कहना चाहता हूँ अपनी कविता में उसे सीधे सीधे कहना चाहता हूँ
ज्यादा शब्दों के उलझाव से बचना चाहता हूँ, भावनाओं को खोजता हूँ शब्दों को नहीं साधारण आदमी के लिए लिखना चाहता हूँ बहुत ही निर्दोष होकर //
कविता में सीधे-सीधे कहने की बातें करना आजकल एक मुहावरे की तरह प्रयोग होने लगा है. लेकिन औसत रूप से स्पष्ट यह होता है कि आजके अधिकांश लेखकों की यह विवशता है कि वे सामान्य और सहज शब्दों में लिखें. इसका मुख्य कारण उनका असहज अध्ययन और असमर्थ शब्द-संग्रह हैं. अतः आजके ऐसे अधिकांश नवहस्ताक्षरों की अधिकांश रचनाएँ सतही होती हैं. हम अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने के लिए शब्दों का ही सहारा लेंगे न ? यदि शब्द ही समर्थ और सार्थक न हुए तो हमारी भावनाएँ कितनों तक संप्रेषित कर पायेंगी, कितनों को संतुष्ट कर पायेंगी ? अब मैं यह कत्तई सुनना नहीं चाहूँगा कि भावनाएँ विचार-समूह हैं और काल, भौतिक सीमाएँ आदि का अतिक्रमण करते हुए उचित पात्र तक पहुँच जाती हैं, जैसे ठाकुर की भावनाएँ नरेन तक पहुँच जाती थीं. या ऐसे ही अन्य उदाहरण .. :-)))
//एक बार मेरे शब्दों में दोष हो जाये पर मेरी भावनाएं निर्दोष हों. मेरे सच्चे ह्रदय को व्यक्त करें. कभी कभी भावनाओं में ऐसे बह जाता हूँ कि शब्दों पर संतुलन नही हो पाता//
बहुत सही कहा आपने, भाईजी.
परन्तु, यह ऐसा ही कुछ नहीं होगा कि साधन भले गड़बड़ न भी हो तो जैसा भी हो, मेरी यात्रा निर्बन्ध चलती रहे ! ऐसा विरले ही होता है. सर्वोपरि, शाब्दिक साहित्य का आधार शब्द ही हैं जिनके माध्यम से भावनाएँ उचित पार्थिव आकार ले पाती हैं.
//अब जो ग़ज़ल लिख रहा हूँ उनमे काफी काँट-छांट करता हूँ. हालांकि मै पहले ऐसा नही करता था. मै चाहता हूँ मेरी कविता मेरी हकीकत हो. मेरी कल्पना नही. जो जीवन पर गुज़रे वही लिखूं. //
यही साहित्य साधना की कसौटी है. ऐसा हर आग्रही और सुगढ़ साहित्यकार करता है. भले उसने साहित्य में भावाभिव्यक्ति के लिए विधा कोई अपना रखी हो, जैसे, ग़ज़ल, गीत, छदबद्ध या छंदमुक्त रचनाएँ या अतुकान्त शैली की कविताएँ.
//काव्य मेरे शब्दों में मेरी भावनाओं में ही नही मेरे जीवन में बहे. गाते गाते लिखना सीखा है पर सच तो ये है अभी तक ठीक से गाना नही सीख पाया सीखूं इस से पहले ही गाने में खो जाता हूँ. जिस दिन गाना ठीक से आ गया उस दिन कविता कि लय अपने आप सुधर जायेगी.//
यह आपकी स्वयं के लिए कसौटी है. ईश्वर सहाय्य हों. लेकिन शब्द-साधना को तप ही कहा गया है. और जो कुछ आप कर रहे हैं वह सह्ज तप का ही एक सुन्दर रूप है.
विश्वास है, मैं अपनी समस्त सीमाओं के बावज़ूद अपने तथ्य आपतक पहुँचा पाने में सफल हुआ.
सादर
आदरणीय पाठक जी इतनी गहरी कवितायें लिखने वाले आप ऐसा मत कहिये ।
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ज़रूर मै आपकी बातों का ध्यान रखूंगा
पर मै जो कहना चाहता हूँ अपनी कविता में उसे सीधे सीधे कहना चाहता हूँ
ज्यादा शब्दों के उलझाव से बचना चाहता हूँ , भावनाओं को खोजता हूँ शब्दों को नहीं
साधारण आदमी के लिए लिखना चाहता हूँ बहुत ही निर्दोष होकर
एक बार मेरे शब्दों में दोष हो जाये पर पर मेरी भावनाएं निर्दोष हों मेरे सच्चे ह्रदय को व्यक्त करें
कभी कभी भावनाओं में ऐसे बह जाता हूँ कि शब्दों पर संतुलन नही हो पाता
अब जो ग़ज़ल लिख रहा हूँ उनमे काफी काँट छांट करता हूँ हालांकि मै पहले ऐसा नही करता था
मै चाहता हूँ मेरी कविता मेरी हकीकत हो मेरी कल्पना नही जो जीवन पर गुज़रे वही लिखूं
काव्य मेरे शब्दों में मेरी भावनाओं में ही नही मेरे जीवन में बहे गाते गाते लिखना सीखा है
पर सच तो ये है अभी तक ठीक से गाना नही सीख पाया सीखूं इस से पहले ही गाने में खो जाता हूँ
जिस दिन गाना ठीक से आ गया उस दिन कविता कि लय अपने आप सुधर जायेगी
और काफी कोशिश कर रहा हूँ ऐसा हो पाये बहुत जल्दी नतीज़े भी आपके सामने होंगे
सादर ।
शायद मेरा अल्प विवेक बीच में आ रहा है आदरणीय भाई साहब।।।।।।।।।।।।
प्रस्तुतियाँ यदि पद्यात्मक प्रारूप में रखना चाहते हैं, भाई नीरजजी, तो उनमें काव्य तत्व का समुचित समावेश करें.
खेद है, ऐसी ’कविताओं’ के हम बहुत हिमायती नहीं हैं.
मेरे कहने का अर्थ है -
प्रेम करो प्रकृति द्वारा सृजित जीवन से तो ही जान सकोगे जीवन के गर्भ में छुपे अनगिनत रहस्यों को. प्रेम से खुलेंगे जीवन के वो द्वार जिनके लिए जन्मों जन्मों से भटकते रहे तुम. जिनसे अब तक अन्जान रहे तुम. प्रेम से होगी यह प्रकृति तुम्हे समर्पित. खोल कर रख देगी सारे राज तुम्हारे सामने जैसे गिरा देती है प्रेयसी परदे अपने प्रेमी के सामने ।
उपरोक्त कुछ वाक्य आपकी कविता ही है.
शुभेच्छाएँ.
आदरणीय पाठक जी
समझ में नही आ रहा है इतनी साधारण सी बात आपको समझ में नहीं
आ रही ।
आदरणीय भंडारी जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।
आदरणीया मीना जी आपका बहुत बहुत आभार ।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद अरुण भाई ।
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