For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

'प्रेम' अतुकान्त

प्रेम करो प्रकृति द्वारा
सृजित जीवन से
तो ही जान सकोगे
जीवन के गर्भ में
छुपे अनगिनत रहस्यों को
प्रेम से खुलेंगे
जीवन के वो द्वार
जिनके लिए जन्मों जन्मों
से भटकते रहे तुम
जिनसे अब तक
अन्जान रहे तुम
प्रेम से होगी यह प्रकृति
तुम्हे समर्पित
खोल कर रख देगी
सारे राज तुम्हारे सामने
जैसे गिरा देती है प्रेयसी
परदे अपने प्रेमी के सामने ।

मौलिक व अप्रकाशित
नीरज 'प्रेम '

Views: 698

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Neeraj Nishchal on December 13, 2013 at 12:59pm

""""""""आजके अधिकांश लेखकों की यह विवशता है कि वे सामान्य और सहज शब्दों में लिखें. इसका मुख्य कारण उनका असहज अध्ययन और असमर्थ शब्द-संग्रह हैं. अतः आजके ऐसे अधिकांश नवहस्ताक्षरों की अधिकांश रचनाएँ सतही होती हैं. हम अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने के लिए शब्दों का ही सहारा लेंगे न ?""""""""""""""

ये बात आपकी बहुत ही विचारणीय है और इस बात मै बिलकुल इंकार नही करूंगा शायद मेरे जैसे लेखक अपने साथ ही
ये बेईमानी करते हों वो अपनी कविता को ठीक ठीक लय ना दे पाने और सही शब्दों के साथ उसे उचित न्याय ना दे पाने
की अपनी कमज़ोरी को अपनी खूबी सिद्ध करने के लिए प्रयास रत हों
कहते हैं जीवन भी एक छंद में होना चाहिए तभी सन्तुलित होता है सारे बुद्धपुरुषों के जीवन छंद युक्त ही हुआ करते थे
तभी तो वो साहित्य को भी इतने छंद दे पाये और उनकी कविताओं में छंद के दोष भी नही दिखाई देते ।
और बिलकुल भावनाओं को व्यक्त करने का प्राथमिक साधन शब्द ही है और जब शब्द समर्थ होंगे तभी हम अपनी भावनाओं को
ठीक ठीक व्यक्त कर सकेंगे और शब्दों की ठीक ठीक यात्रा करके ही हम अपने लिए मौन के द्वार भी खोल सकेंगे ।
सादर ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 12, 2013 at 6:23pm

अच्छा लगा भाई नीरजजी, कि आपने मेरे कहे को यथोचित सम्मान दिया.

मैं आपके कहे पर संवाद बनाने के क्रम में स्वयं को विन्दुवत रखना चाहूँगा. इसलिये वाक्य प्रति वाक्य पर मेरा निवेदन प्रस्तुत है --
 
//ज़रूर मै आपकी बातों का ध्यान रखूंगा //

हार्दिक धन्यवाद, भाईजी.

//पर मै जो कहना चाहता हूँ अपनी कविता में उसे सीधे सीधे कहना चाहता हूँ
ज्यादा शब्दों के उलझाव से बचना चाहता हूँ, भावनाओं को खोजता हूँ शब्दों को नहीं साधारण आदमी के लिए लिखना चाहता हूँ बहुत ही निर्दोष होकर //

कविता में सीधे-सीधे कहने की बातें करना आजकल एक मुहावरे की तरह प्रयोग होने लगा है. लेकिन औसत रूप से स्पष्ट यह होता है कि आजके अधिकांश लेखकों की यह विवशता है कि वे सामान्य और सहज शब्दों में लिखें. इसका मुख्य कारण उनका असहज अध्ययन और असमर्थ शब्द-संग्रह हैं. अतः आजके ऐसे अधिकांश नवहस्ताक्षरों की अधिकांश रचनाएँ सतही होती हैं. हम अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने के लिए शब्दों का ही सहारा लेंगे न ? यदि शब्द ही समर्थ और सार्थक न हुए तो हमारी भावनाएँ कितनों तक संप्रेषित कर पायेंगी, कितनों को संतुष्ट कर पायेंगी ? अब मैं यह कत्तई सुनना नहीं चाहूँगा कि भावनाएँ विचार-समूह हैं और काल, भौतिक सीमाएँ आदि का अतिक्रमण करते हुए उचित पात्र तक पहुँच जाती हैं, जैसे ठाकुर की भावनाएँ नरेन तक पहुँच जाती थीं. या ऐसे ही अन्य उदाहरण .. :-)))

//एक बार मेरे शब्दों में दोष हो जाये पर मेरी भावनाएं निर्दोष हों. मेरे सच्चे ह्रदय को व्यक्त करें. कभी कभी भावनाओं में ऐसे बह जाता हूँ कि शब्दों पर संतुलन नही हो पाता//

बहुत सही कहा आपने, भाईजी.

परन्तु, यह ऐसा ही कुछ नहीं होगा कि साधन भले गड़बड़ न भी हो तो जैसा भी हो, मेरी यात्रा निर्बन्ध चलती रहे ! ऐसा विरले ही होता है. सर्वोपरि, शाब्दिक साहित्य का आधार शब्द ही हैं जिनके माध्यम से भावनाएँ उचित पार्थिव आकार ले पाती हैं.

//अब जो ग़ज़ल लिख रहा हूँ उनमे काफी काँट-छांट करता हूँ. हालांकि मै पहले ऐसा नही करता था. मै चाहता हूँ मेरी कविता मेरी हकीकत हो. मेरी कल्पना नही. जो जीवन पर गुज़रे वही लिखूं. //

यही साहित्य साधना की कसौटी है. ऐसा हर आग्रही और सुगढ़ साहित्यकार करता है. भले उसने साहित्य में भावाभिव्यक्ति के लिए विधा कोई अपना रखी हो, जैसे, ग़ज़ल, गीत, छदबद्ध या छंदमुक्त रचनाएँ या अतुकान्त शैली की कविताएँ.

//काव्य मेरे शब्दों में मेरी भावनाओं में ही नही मेरे जीवन में बहे. गाते गाते लिखना सीखा है पर सच तो ये है अभी तक ठीक से गाना नही सीख पाया सीखूं इस से पहले ही गाने में खो जाता हूँ. जिस दिन गाना ठीक से आ गया उस दिन कविता कि लय अपने आप सुधर जायेगी.//

यह आपकी स्वयं के लिए कसौटी है. ईश्वर सहाय्य हों. लेकिन शब्द-साधना को तप ही कहा गया है. और जो कुछ आप कर रहे हैं वह सह्ज तप का ही एक सुन्दर रूप है.

विश्वास है, मैं अपनी समस्त सीमाओं के बावज़ूद अपने तथ्य आपतक पहुँचा पाने में सफल हुआ.

सादर

Comment by Neeraj Nishchal on December 12, 2013 at 12:42pm

आदरणीय पाठक जी इतनी गहरी कवितायें लिखने वाले आप ऐसा मत कहिये ।

Comment by Neeraj Nishchal on December 12, 2013 at 12:37pm

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ज़रूर मै आपकी बातों का ध्यान रखूंगा
पर मै जो कहना चाहता हूँ अपनी कविता में उसे सीधे सीधे कहना चाहता हूँ
ज्यादा शब्दों के उलझाव से बचना चाहता हूँ , भावनाओं को खोजता हूँ शब्दों को नहीं
साधारण आदमी के लिए लिखना चाहता हूँ बहुत ही निर्दोष होकर
एक बार मेरे शब्दों में दोष हो जाये पर पर मेरी भावनाएं निर्दोष हों मेरे सच्चे ह्रदय को व्यक्त करें
कभी कभी भावनाओं में ऐसे बह जाता हूँ कि शब्दों पर संतुलन नही हो पाता
अब जो ग़ज़ल लिख रहा हूँ उनमे काफी काँट छांट करता हूँ हालांकि मै पहले ऐसा नही करता था
मै चाहता हूँ मेरी कविता मेरी हकीकत हो मेरी कल्पना नही जो जीवन पर गुज़रे वही लिखूं
काव्य मेरे शब्दों में मेरी भावनाओं में ही नही मेरे जीवन में बहे गाते गाते लिखना सीखा है
पर सच तो ये है अभी तक ठीक से गाना नही सीख पाया सीखूं इस से पहले ही गाने में खो जाता हूँ
जिस दिन गाना ठीक से आ गया उस दिन कविता कि लय अपने आप सुधर जायेगी
और काफी कोशिश कर रहा हूँ ऐसा हो पाये बहुत जल्दी नतीज़े भी आपके सामने होंगे
सादर ।

Comment by ram shiromani pathak on December 11, 2013 at 9:27pm

शायद मेरा अल्प विवेक बीच में आ रहा है आदरणीय भाई साहब।।।।।।।।।।।।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 11, 2013 at 9:08pm

प्रस्तुतियाँ यदि पद्यात्मक प्रारूप में रखना चाहते हैं, भाई नीरजजी, तो उनमें काव्य तत्व का समुचित समावेश करें.

खेद है, ऐसी ’कविताओं’ के हम बहुत हिमायती नहीं हैं.

मेरे कहने का अर्थ है -

प्रेम करो प्रकृति द्वारा सृजित जीवन से तो ही जान सकोगे जीवन के गर्भ में छुपे अनगिनत रहस्यों को. प्रेम से खुलेंगे जीवन के वो द्वार जिनके लिए जन्मों जन्मों से भटकते रहे तुम. जिनसे अब तक अन्जान रहे तुम. प्रेम से होगी यह प्रकृति तुम्हे समर्पित. खोल कर रख देगी सारे राज तुम्हारे सामने जैसे गिरा देती है प्रेयसी परदे अपने प्रेमी के सामने ।

उपरोक्त कुछ वाक्य आपकी कविता ही है. 

शुभेच्छाएँ.

Comment by Neeraj Nishchal on December 11, 2013 at 12:24pm

आदरणीय पाठक जी
समझ में नही आ रहा है इतनी साधारण सी बात आपको समझ में नहीं
आ रही ।

Comment by Neeraj Nishchal on December 11, 2013 at 12:19pm

आदरणीय भंडारी जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।

Comment by Neeraj Nishchal on December 11, 2013 at 12:17pm

आदरणीया मीना जी आपका बहुत बहुत आभार ।

Comment by Neeraj Nishchal on December 11, 2013 at 12:07pm

आपका बहुत बहुत धन्यवाद अरुण भाई ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Oct 31
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service