2122 2122 2122
जब उजाला चाहते थे सब दिये से
क्यों अँधेरा बंट रहा है हाशिये से
था क्षणिक उन्माद मैं ये मान भी लूँ
मूँद लोगे आँखें क्या अपने किये से ?
बोझ से कोई गिरा, कोई नशे में
फर्क मुश्किल है, पिये का बेपिये से
ज़िंदगी तो रोज़ आँसू बाँटती है
हम चुराते हैं हँसी हर वाक़िये से
ये इलाज -ए- जख्म कैसा हो रहा है
क्यों ज़ियादा दर्द होता है, सिये से
हाँ ग़ज़ल कहने की कोशिश है मेरी भी
डर मगर लगता है ऐसे काफिये से
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )
Comment
आदरणीय जितेन्द्र भाई , गज़ल की सराहना और हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से बधाई !!!!!
बहुत ख़ूब आदरणीय ..
किसलिये में, जिए में ...वो रस नहीं आया, जो आप की ग़ज़लों में मिलता है...
सिर्फ वाह वाह कर के आगे बढ़ जाना मुनासिब न लगा .... अत: ये टिप्पणी की है ...
थोडा समय और मांग रही है ग़ज़ल अभी ..
.
बोझ से कोई गिरा कोई नशे से ... ऐसा करने से गय्यता बढ़ जाएगी .. ऐसा मुझे लगता है.
कृपया अन्यथा न लें
सादर
हम उजाला चाहते थे हर दिये में
इसलिये तो हम पडे हैं हाशिये में.. बहुत बढ़िया,शुरुआत ही बहुत जबर्रदस्त. सुन्दर ग़ज़ल .. बधाई आदरणीय
बहुत बढ़िया गजल आदरणीय गिरिराज जी, यह खास पसंदीदा हुए दिली दाद कुबूल कीजिये
हम उजाला चाहते थे हर दिये में
इसलिये तो हम पडे हैं हाशिये में
ज़िन्दगी तो रोज़ गम ही बाँटती है
हम ही हँस लेते हैं हर इक वाक़िये में
आदरणीय राम शिरोमणी भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया !!!!!!!
आदरणीय सुशील भाई, हौसला अफज़ाई के लिये आपका शुक्रिया !!!!!!
आदरणीय सुशील भाई, हौसला अफज़ाई के लिये आपका शुक्रिया !!!!!!
आदरणीय शिज्जू भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया !!!!!!!
आदरणीया मीना जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ !!!!!!
आदरणीय चन्द्रशेख्रर भाई , गज़ल की सराहना और उत्साह वर्धन के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया !!!!!
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