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ज़िन्दगी तो रोज़ गम ही बाँटती है ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

2122     2122      2122

जब उजाला चाहते थे सब दिये से

क्यों अँधेरा बंट रहा है हाशिये से

 

था क्षणिक उन्माद मैं ये मान भी लूँ

मूँद लोगे आँखें क्या अपने किये से ?


बोझ से कोई गिरा, कोई नशे में  

फर्क मुश्किल है, पिये का बेपिये से


ज़िंदगी तो रोज़ आँसू बाँटती है

हम चुराते हैं हँसी हर वाक़िये से


ये इलाज -ए- जख्म कैसा हो रहा है

क्यों ज़ियादा दर्द होता है, सिये से


हाँ ग़ज़ल कहने की कोशिश है मेरी भी 
डर मगर लगता है  ऐसे  काफिये से

 

      **************

मौलिक एवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

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Comment by ram shiromani pathak on December 9, 2013 at 11:47pm

कोई  बोझे से गिरे थे कुछ नशे से

फर्क  मुश्किल था पिये या बे पिये में

 

ज़िन्दगी  तो रोज़ गम  ही बाँटती है

हम ही हँस लेते हैं हर इक वाक़िये में////////// वाह बहुत खूब  

आदरणीय गिरिराज जी बहुत  ही सुन्दर  ग़ज़ल   ..... हार्दिक बधाई आपको ////// सादर  

 

Comment by Sushil Sarna on December 9, 2013 at 8:44pm

bahut umda gazal aur uske bhaav...wah haardik badhaaee is srijan ke liye


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on December 9, 2013 at 8:22pm

आदरणीय गिरिराज सर बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने बहुत बहुत बधाई

Comment by Meena Pathak on December 9, 2013 at 7:05pm

हाँ, ग़ज़ल कह लेता हूँ थोड़ी बहुत मैं

पर अटक जाता हूँ हरदम काफिये में............... बहुत खूब | बधाइयाँ 

सादर 

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on December 9, 2013 at 6:38pm

जय हो जय हो जय हो। क्या खूब गजल कही आदरणीय। उम्दा !!!! दिली दाद कुबूल फरमाएं।

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