1)
आपस के संवाद में, कितने ही मंतव्य !
कुछ तो हैं संयत-सहज, अक्सर हैं वायव्य
अक्सर हैं वायव्य, शब्द से चोट करारी
वैचारिक प्रतिकार, अहं ने मति भी मारी
वाक्य-वाक्य में व्यंग्य, ढंग क्या हैं मानस के ?
हे ! मानव समुदाय, यही क्या सुख आपस के ?
2)
ऊँचा उठता है धुआँ, नीचे जाती धार
पर सचेत-मन व्यक्ति का, यथा उचित व्यवहार
यथा उचित व्यवहार, तभी वह संसारी हो
’सीख - सिखाना’ कर्म साधना सुखकारी हो
चर्चा, नहीं विवाद, इसी में सार समूचा
शिष्ट बुद्धि, सद्भाव, उठाते जन को ऊँचा !
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
सही कहा आपने, नादिर भाईसाहब. हृदय पर लगी चोट का असर शीघ्र नहीं जाता.
कबीरदास के आपने जिस दोहे को उद्धृत किया है उसे हमने कुछ यों पढ़ा है -
ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोय
औरन को सीतल करे, आपहुँ सीतल होय
शुभ-शुभ
आदरणीय लक्ष्मण प्रसादजी, मुझपर बने आपके विश्वास का निर्वहन होता रहे. आपका सादर धन्यवाद
आदरणीय भाई संदीपजी, आपने प्रयास को मान दिया भला लगा. हार्दिक धन्यवाद.
शुभ-शुभ
आदरणीय सुशीलजी, आपका सद्भाव और सदाशयता बनी रहे. सादर धन्यवाद
आदरणीय विजयजी, आपने जिस फलक पर इन छंदों के व्यवहार को देखा है वह आपकी समग्रता में देखने की क्षमता को ही समक्ष ला रही है. हृदय से धन्यवाद, भाईजी.
आदरणीय गोपालजी, आपकी यह उदारता और असीम सदाशयता है जो मुखर रूप से अभिव्यक्त हो रही है.
सादर धन्यवाद
आदरणीय नीलेश नूरजी, रचना को मान देने के लिए सादर धन्यवाद.
सादर धन्यवाद, आदरणीया मीनाजी.
प्रयास रुचिकर लगा इस हेतु आपका सादर आभार, आदरणीय सत्यनारायणजी.
सादर
वाह वाह वाह आदरणीय सौरभ जी दोनों कुंडलियों ने मन को तृप्त कर दिया ..
इसीलिये बड़े बुजुर्ग फ़रमाते हैं, शरीर की बाहरी चोट तो एक न एक दिन भर जाएगी पर शब्दों के द्वारा दिल मे लगी चोट भरने में पूरी
उम्र कम पड़ जाती है । कबीर दास जी का दोहा याद आ गया , ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये ,अपना मन शीतल करे औरन को सुख होए। बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ जी ।
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