मिसरों का वज़न - २१२२ १२१२ ११२/२२
रौशनी का भला बखान भी क्या !
दीप का लीजिये बयान भी, क्या.. ?!
वो बड़े लोग हैं, ज़रा तो समझ--
उनके लहज़े में सावधान भी क्या !
चाँद बस रौंदता है तारों को
आसमानों को संविधान भी क्या !
आपसी गुफ़्तग़ू में आईने
पूछते हैं, 'कटी ज़ुबान भी क्या' ?
फिर बदन में जो गुदगुदी सी हुई
भूख भरने लगी उड़ान भी क्या ?
पंच-परमेश्वरों की धरती पर
हो गये आज के प्रधान भी क्या !
बन्द कमरों की खिड़कियों से न पूछ
था हवादार ये मकान भी क्या ?
क्यों न हम छूट के निभा ही लें
हर दफ़ा ये लहू-लुहान भी क्या ?
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--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
भाई अभिनव अरुणजी, मेरी किसी ग़ज़ल पर आपकी आमद मेरे लिए भी फ़ख़्र की बात है. ऐसे ही हौसला अफ़ज़ाई करते रहियेगा.
आपने उत्साह में एक ही शेर को दो दफ़े उद्धृत कर दिया है. या यह शेर इतना करीब गया आपके !
हार्दिक धन्यवाद
भाई सलीमरज़ा साहब, आपकी हौसला अफ़ज़ाई है कि कुछ का कुछ कहा भला लग गया.
कोशिश को नज़र में रखने के लिए आपका आभार..
आदरणीया अन्नपूर्णाजी, आप मेरी उस ग़ज़ल को गुनगुना गयीं जिसे मैं खुद सुर नहीं दे पाया हूँ. सादर आभार
आदरणीय अखिलेशजी, आपकी आमद मेरे लिए भी वाइसेसुकूं है. आपका आभार
भाई तपन दुबेजी, आपकी पसंद के हम आभारी हैं. हृदय से धन्यवाद
आदरणीय राजेश मृदुजी, आपने जिस शेर को खास तौर पर उद्धृत किया है वह मेरे लिए भी गौरव के क्षण ले आया है.
आपको प्रयास रुचिकर लगा यह मेरे जैसों को भी संतोष देता है.
शुभ-शुभ
डॉ.प्राची, आपको ग़ज़ल पसंद आयी यह मेरे लिए भी आनन्द की बात है. क़ाफ़िया कठिन नहीं हैं. बस कुछ थोड़े कम प्रचलित हैं.
प्रयास को मान देने लिए आभार
भाई राजबुन्देलीजी, आपकी सदाशयता है कि आपन् इअ ग़ज़ल की दिल ख्ल कर प्रशंसा की है.
हार्दिक धन्यवाद
जितेन्द्र भाई, आपको ग़ज़ल पसंद आयी इसके लिए आपको दिल से धन्यवाद कह रहा हूँ.
वीनस भाई, इस ग़ज़ल के होने में आपके अंजुमन प्रकाशन का बहुत बड़ा योगदान है. अदबघर के तरही नशिस्त में आपसभी ने इस ग़ज़ल को दिल खोल कर सराहा था और सभी से भरपूर दाद मिली थी.
यहाँ भी कुछ अश’आर उद्धृत कर आपने अपनी पसंदग़ी ज़ाहिर की है.
बहुत-बहुत धन्यवाद
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