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छलकती आँखें हैं साकी हसीं इक जाम हो जाये
बना दो रिंद दुनिया को सुहानी शाम हो जाये
जुदा मजहब के लोगों को मिला दे आज ऐ साकी
तरीका कोई भी हो आज दिलकश काम हो जाये
हमें हिन्दू मुसल्मा कह लड़ाते हैं भिड़ाते हैं
करो कोई जतन ऐसा की हिंदी नाम हो जाये
हजारों फूल गुलशन में जुदा हैं रूप रंगत भी
मगर खुशबू जुदा मिलकर हसीं पैगाम हो जाये
न जाने किसकी साजिश है बहाते हम लहू अपना
करो मिलकर दुआ साजिश सभी नाकाम हो जाये
हमारे बंधू बांधव ही बने हिन्दू बने मुस्लिम
मुखौटों में तो कोई भी यूं ही गुमनाम हो जाये
वो आयें शौक से मंदिर करें मस्जिद में हम सजदा
हो काशी उनका औ काबा हमारा धाम हो जाये
मिलो बकरीद में सबसे मनाओ साथ दीवाली
मिलो ऐसे की घर अहबाब के कुहराम हो जाये
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय आशुतोष भाईजी वाह क्या कहने--//
न जाने किसकी साजिस है बहाते हम लहू अपना
करो मिलकर दुआ साजिस सभी नाकाम हो जाये// --सुन्दर गजल हुइ है। बधाई स्वीकार करें। सादर,
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