(1)
हमारे सपने लेते रहे आकार
बड़े और बड़े
महानगर की इमारतों की तरह
भव्य और विशाल
हमारे सपने
बढ़ते रहे
आगे और आगे..
कभी खुद से
कभी दूसरों से
आगे बढ़ जाने की चाह में
माँ – बाप की ज़रूरतें
छोटी होती गईं
टूट चुके गाँव के मकान के बाद
दो वक्त की रोटी में सिमट गईं।
(2)
वे कभी नहीं आए
हमारे सपनों के बीच
मगर जुड़े रहे हमसे
अपनी दुआओं के साथ ।
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
वे कभी नहीं आए
हमारे सपनों के बीच
मगर जुड़े रहे हमसे
अपनी दुआओं के साथ ।
मर्मस्पर्शी, बहुत प्रभावित करती पंक्तियाँ बधाई स्वीकारें आदरणीय नादिर साहब
आ0 नादिर भाई जी सुंदर भाव युक्त क्षणिकाएं , दूसरी क्षणिका बहुत ही प्रभाव शाली है । बधाई आपको ।
बहुत बढ़िया
आदरणीय बेहद सुन्दर रचना बधाई स्वीकारें.
वे कभी नहीं आए
हमारे सपनों के बीच
मगर जुड़े रहे हमसे
अपनी दुआओं के साथ । आदरणीय नादिर जी इन पंक्तियों के लिए विशेषतौर से बधाई स्वीकारें. कमाल कर दिया आपने
वे कभी नहीं आए
हमारे सपनों के बीच
मगर जुड़े रहे हमसे
अपनी दुआओं के साथ ।............अनुपम ,,,, सादर बधाई
अदरणीय नादिर भाई , लाजवाब क्षणिकाओं के लिये आपको बधाई ॥
वे कभी नहीं आए
हमारे सपनों के बीच
मगर जुड़े रहे हमसे
अपनी दुआओं के साथ । ......... बेमिसाल ! आदरणीय ढेरों बधाइयाँ ॥
अदरणीय, अविनाश जी, डॉ गोपाल नारायण जी, गणेश जी
आदरणीया, राजेश कुमारी जी, सविता जी
आप सबने कविता को सराहा एवं मेरा हौसला बढ़ाया आप सब का शुक्रिया ।
आभार....
//
वे कभी नहीं आए
हमारे सपनों के बीच
मगर जुड़े रहे हमसे
अपनी दुआओं के साथ ।//
आहा, बहुत ही भावप्रधान रचना, प्रथम प्रस्तुति "क्षणिका" दायरे में आएगी या नहीं इसपर मैं निश्चित नहीं हूँ हालाकि दोनों रचनाएं मुझे अच्छी लगीं, बधाई नादिर भाई |
बहुत सुन्दर
सुन्दर भाव युक्त हृदय स्पर्शी क्षणिकाएं बहुत बहुत बधाई
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