फिर से नई कोपलें फूटीं,
खिला गाँव का बूढ़ा बरगद।
शुभारंभ है नए साल का,
सोच, सोच है मन में गदगद।
आज सामने, घर की मलिका
को उसने मुस्काते देखा।
बंद खिड़कियाँ खुलीं अचानक,
चुग्गा पाकर पाखी चहका।
खिसियाकर चुपचाप हो गया,
कोहरा जाने कहाँ नदारद।
खबर सुनी है,फिर अपनों के
उस देहरी पर कदम पड़ेंगे।
नन्हीं सी मुस्कानों के भी,
कोने कोने बोल घुलेंगे।
स्वागत करने डटे हुए हैं,
धूल झाड़कर चौकी मसनद।
लहकेगी तुलसी चौरे पर,
चौबारे चौपाल जमेगी।
नरम हाथ की गरम रोटियाँ,
बहुरानी सबको परसेगी।
पिघल-पिघल कर बह निकलेगा
दो जोड़ी नयनों से पारद।
बरगद के मन द्वंद्व छिड़ा है,
कैसे हल हो यह समीकरण।
रिश्तों का हर नए साल में,
हो जाता है बस नवीकरण।
अपने चाहे दुनिया छोड़ें,
नहीं छूटता पर ऊँचा पद।
मौलिक व अप्रकाशित
कल्पना रामाँनी
Comment
आद्रणीय श्याम नरेन जी प्रोत्साहन के लिए हार्दिक धन्यवाद
सादर धन्यवाद आदरणीय शिज्जु जी
बहुत बढ़िया आदरणीया कल्पना जी बहुत अच्छा गीत लिखा है आपने बहुत बहुत बधाई
बहुत सुंदर नवगीत...बहुत-बहुत बधाई |
आदरणीया कल्पना जी , लाजवाब नवगीत की रचना की है आपने , आपको ढेरों बधाइयाँ ॥
सादर धन्यवाद मीना जी
बहुत सुन्दर नवगीत आ० कल्पना दी ... बधाई आप को | सादर
सादर धन्यवाद आदरणीय अविनाश जी
आदरणीय गोपाल नारायण जी, गीत पसंद कर मनोबल बढ़ाने के लिए हार्दिक धन्यवाद
स्वागत करने डटे हुए हैं,
धूल झाड़कर चौकी मसनद।...मुबारक हो...
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