इन गुलाब की पंखुड़ियों पर
जमी
ओस की बुँदकी चमकी
नए साल की आहट पाकर
उम्मीदों की बगिया महकी
रही ठिठुरती
सांकल गुपचुप
सर्द हवाओं के मौसम में
द्वार बँधी
बछिया निरीह सी
रही काँपती घनी धुँध में
छुअन किरण की मिली सबेरे
तब मुँडेर पर चिड़िया चहकी
दर-दर भटक रही
पगडंडी
रेत-कणों में
राह ढूँढती
बरगद की
हर झुकी डाल भी
जाने किसकी
बाँट जोहती
एक उदासी ओढे थी जो
नदिया की वह धारा हुमकी
.
- बृजेश नीरज
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी आपका हार्दिक आभार! मैं प्रतीक्षारत हूँ!
सादर!
वाह् !..
फिर से आता हूँ, बृजेशभाई.. इत्मिनान से..
आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय बृजेश भाई , बहुत सुन्दर नव गीत रचना की है आपने , आपको ढेरों बधाइयाँ ॥
आदरणीया महिमा जी आपका हार्दिक आभार!
बहुत ही सुंदर नवगीत आदरणीय ब्रिजेश जी बहुत -२ बधाई आपको
आदरणीय शिज्जु जी आपका हार्दिक आभार!
//इन गुलाब की पंखुड़ियों पर
जमी
ओस की बुँदकी चमकी
नए साल की आहट पाकर
उम्मीदों की बगिया महकी// वाह आदरणीय बृजेश जी बहुत बढ़िया, नवगीत की बेहद खूबसूरत शुरुआत हैl बहुत बहुत बधाई आपको इस रचना के लिये
आदरणीय श्याम जी आपका हार्दिक आभार!
आदरणीय गोपाल जी आपका हार्दिक आभार! आपके प्रोत्साहन से बहुत बल मिला!
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