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नवगीत/ नए साल की आहट पाकर

इन गुलाब की पंखुड़ियों पर

जमी

ओस की बुँदकी चमकी   

नए साल की आहट पाकर

उम्मीदों की बगिया महकी

 

रही ठिठुरती

सांकल गुपचुप

सर्द हवाओं के मौसम में

द्वार बँधी 

बछिया निरीह सी

रही काँपती घनी धुँध में

 

छुअन किरण की मिली सबेरे

तब मुँडेर पर चिड़िया चहकी

 

दर-दर भटक रही

पगडंडी

रेत-कणों में

राह ढूँढती

बरगद की

हर झुकी डाल भी

जाने किसकी

बाँट जोहती

 

एक उदासी ओढे थी जो

नदिया की वह धारा हुमकी

.

- बृजेश नीरज

मौलिक व अप्रकाशित

Views: 938

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Comment by Shyam Narain Verma on December 27, 2013 at 4:27pm
बहुत सुंदर नवगीत...बहुत-बहुत बधाई.......
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 27, 2013 at 3:13pm

ब्रिजेश भाई जी

क्या सुन्दर भावपूर्ण कविता है  i  --एक उदासी ओढ़े थी जो , नदिया की वह धारा हुमकी i --- इस पंक्ति ने ही नव् वर्ष के पूरे उत्साह को अभिव्यंजित सा कर दिया i अद्भुत मानवीकरण i

Comment by बृजेश नीरज on December 27, 2013 at 12:38pm

आदरणीया कुंती जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by coontee mukerji on December 27, 2013 at 12:24pm

बहुत सुंदर नवगीत का उपहार इस नववर्ष के उपलक्ष्य पर और क्या हो सकता है बेजेश जी.....और जीवन आशा-निराशा के बीच तो उतराता रहता है.

शुभकामनाएँ सहित

सादर.

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